सोमवार, मई 28, 2018

मां के आंचल जैसी प्यारी , माटी मेरे सागर की - डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
       आज 28 मई 2018 को " सागर दिनकर " में प्रकाशित मेरी रचना जो मेरे शहर सागर को समर्पित है... आप भी पढ़िए और Share कीजिए ❤
हार्दिक धन्यवाद #सागरदिनकर 🙏

माटी मेरे सागर की
                    - डॉ. वर्षा सिंह

मां के आंचल जैसी प्यारी ,  माटी मेरे सागर की ।।
सारे जग से अद्भुत न्यारी,  माटी मेरे सागर की ।।

भूमि यही वो जहां ‘’गौर’’ ने, दान दिया था शिक्षा का
पाठ पढ़ाया  था  हम सबको,  संस्कार की  कक्षा का
विद्या की यह है फुलवारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी..................

विद्यासागर जैसे  ऋषि-मुनि की   पावनता  पाती है
धर्म, ज्ञान की, स्वाभिमान की अनुपम उज्जवल थाती है
श्रद्धा, क्षमा, त्याग की क्यारी,  माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी.............

‘वर्णी जी’  की तपो भूमि यह, यही भूमि ‘पद्माकर’ की
‘कालीचरण’ शहीद यशस्वी, महिमा  अद्भुत सागर की
सारा जग इस पर बलिहारी, माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी.................

नौरादेही   में   संरक्षित   वन   जीवों  का डेरा है
मैया  हरसिद्धी  का  मंदिर, रानगिरी  का  फेरा  है
आबचंद की गुफा दुलारी,  माटी मेरे  सागर  की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी...........

राहतगढ़  की छटा अनूठी ,झर-झर झरती जलधारा
गढ़पहरा,  धामौनी  बिखरा ,  बुंदेली   वैभव  सारा
राजघाट, रमना चितहारी, माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी................

एरण पुराधाम विष्णु का , सूर्यदेव हैं रहली में
देव बिहारी जी के हाथों सारा जग है मुरली में
पीली कोठी अजब सवारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी....................

मेरा सागर मुझको प्यारा, यहीं हुए लाखा बंजारा
श्रम से अपने झील बना कर, संचित कर दी जल की धारा
‘वर्षा’-बूंदों की किलकारी , माटी मेरे सागर की ।।
मां के आंचल जैसी प्यारी...........
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रविवार, मई 27, 2018

भुट्टा घाईं भुन रए...बुंदेली रचना- डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
        भीषण गर्मी के इस दौर में मेरी एक बुंदेली रचना प्रस्तुत है..... Please read & Share

             भुट्टा घाईं भुन रए

काट-काट जंगलन खों,
बस्तियां बसाय दईं
मूंड़ धरे घुटनों पे
सबई अब रोए हैं।
           ‘पर्यावरण’ की मनो
            ऐसी- तैसी कर डारी
            बेई फल मिलहें जाके
            बीजा हमने बोए हैं।
गरमी के मारे सबई
भुट्टा घाईं भुन रए
‘वर्षा’ खों टेर- टेर
बदरा खों रोय हैं।
            कछू तो सरम करो
            ऐसो- कैसो स्वारथ है
             दूध की मटकिया में
             मट्ठा जा बिलोए हैं।
                                  - डॉ वर्षा सिंह

#बुंदेलीबोली_वर्षासिंह

#ग़ज़लवर्षा

मंगलवार, मई 15, 2018

कहन में मैं यानी डॉ. वर्षा सिंह

प्रिय मित्रों,
      दमोह, म.प्र. से एक साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित हुआ करती थी - "कहन"
... प्रगतिशील लोक चेतना को समर्पित अनियतकालिक/ अव्यावसायिक इस पत्रिका का सम्पादन सम्पादक द्वय मनीष दुबे और दयाशंकर सुबोध के ज़िम्मे था। परामर्श मंडल में डॉ. कमला प्रसाद, डॉ. श्यामसुंदर दुबे, कुमार अंबुज आदि शामिल थे। मेरी अनेक रचनाएं इसमें प्रकाशित हुई थीं। एक लम्बा अरसा हो गया इस पत्रिका के ताज़ा अंक से रू-ब-रू हुए ... मुझे ज्ञात नहीं कि यह पत्रिका अब प्रकाशित हो रही है अथवा नहीं... । इस पत्रिका का वर्ष 1995 में प्रकाशित एक अंक आज अचानक ही मुझे अपनी किताबों के बीच उपलब्ध हो गया जिसके पृष्ठ 15 पर मेरी एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई थी।

गुरुवार, मई 03, 2018

ख़्वाब हमारे अपने हैं .. डॉ वर्षा सिंह

GOOD MORNING FRIENDS 🌹

दिल में डेरा डाले हैं ।
यादों के उजियाले हैं ।

हम तुम जब भी साथ हुए
पल वो बड़े निराले हैं ।

छोटे - छोटे लम्हे भी
बेहद ख़ुशियों वाले हैं ।

ख़्वाब हमारे अपने हैं
मिल जुल हमने पाले हैं ।

ग़म से "वर्षा" डरना क्या
ग़म तो देखे- भाले हैं ।

- डॉ वर्षा सिंह