बुधवार, सितंबर 19, 2018

ग़ज़लों की दुनिया..... -डॉ. वर्षा सिंह

Dr Varsha Singh
एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह ग़ज़ल के रूप में जाना जाता है। अरबी, फारसी से निकल कर उर्दू और हिन्दी में आई ग़ज़ल अब हिन्दी, बुंदेली में भी अपनी ख़ास जगह बना चुकी है।
अब वो ज़माना नहीं रहा जब ग़ज़ल की परिभाषा होती थी.....
ऐसी पद्यात्मक रचना जिसमें नायिका के सौन्दर्य एवं उसके प्रति उत्पन्न प्रेम का वर्णन हो।
Mirza Ghalib

   ग़ज़ल का मिजाज़ बदला, और लगातार बदलता गया। लेकिन ये बदलाव अचानक नहीं आया ... इश्क़ मिजाज़ी के अशआर कहने वाले मिर्जा ग़ालिब  ने भी दुनिया के हालात पर कुछ इस तरह अपनी अभिव्यक्ति दी है ....
सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास,
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले ।
अदल के तुम न हमें आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले ।
   और ये शेर भी देखें....
थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े ,
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ।
मीर तकी मीर

मीर कहते हैं.....
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद
रहो
ईश्वर के प्रेम से चल कर आम आदमी के हालत तक पहुंची ग़ज़ल दुष्यंत के बाद और परवान चढ़ी।
दुष्यंत को याद किए बिना कुछ भी कहना बेमानी है....
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
सूर्यभानु गुप्त

सूर्यभानु गुप्त कहते हैं...
अपनी दुनिया के लोग लगते हैं
कुछ हैं छोटे तो कुछ बड़े हैं पेड़

उम्र भर रास्तों पे रहते हैं
शाएरी पर सभी पड़े हैं पेड़

मौत तक दोस्ती निभाते हैं
आदमी से बहुत बड़े हैं पेड़

अपना चेहरा निहार लें रुतवें
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़

डॉ. वर्षा सिंह
और मेरी बात पर भी गौर फरमाएं....

नयन में उमड़ा जलद है ।
नभ व्यथा का भी वृहद है ।

आँसुओं से तर-बतर है
यह कथानक भी दुखद है ।

दोष क्या दें अब तिमिर को
रोशनी को आज मद है ।

नींद को कैसे मनाएँ
ख़्वाब की खोई सनद है ।

त्रासदी ‘वर्षा’ कहें क्या ?
शत्रु अब तो मेघ ख़ुद है ।
     उम्मीद है कि ग़ज़लों की दुनिया यूं ही आबाद रहेगी। नयी उम्मीद, नये कंटेंट और नयी परिभाषाओं के साथ क़दम बढ़ाती जायेगी।
      - डॉ. वर्षा सिंह

©Dr Varsha Singh