सोमवार, अक्तूबर 29, 2018

फ़नकारी बहुत है महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों में - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
दुष्यंत कुमार सम्मान प्राप्त डॉ. महेंद्र अग्रवाल ग़ज़ल की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। उनका ग़ज़ल संग्रह ‘फ़नकारी सा कुछ तो है’ गजलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। शायरी वही है जो दिलों को छू जाए शायरी वह भी है जो विचारों को झकझोर जाए।

21अप्रैल 1964 को जन्मे डॉ. महेंद्र अग्रवाल प्राणी शास्त्र में एम.एससी. डिग्री प्राप्त होने के साथ ही एम ए हिंदी साहित्य, एल.एल.बी. और पीएच.डी. है आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से लगातार उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। “नई ग़ज़ल स्वरूप एवं संवेदना” उनका शोध प्रबंध है। दुष्यंत कुमार सम्मान के साथ ही देवकीनंदन माहेश्वरी सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य अलंकरण, गजल गौरव सम्मान आदि प्रतिष्ठित अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ. महेंद्र अग्रवाल “नई ग़ज़ल” पत्रिका के संपादन का कार्य वर्षों से देखते आ रहे हैं। यूं तो उन्होंने आलोचना और व्यंग्य की कई किताबें लिखी हैं , एक शायर के रूप में उनकी ग़ज़लों के अनेक संग्रह प्रकाशित और लोकप्रिय हुए हैं । जिनमें प्रमुख हैं - पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग, शोख़ मंज़र ले गया, ये तय नहीं था, बादलों को छूना है, चांदनी से मिलना है।
Dr. Mahendra Agrawal

गज़़ल के लीजेंड शायर, व्यंग्यकार एवं नई गज़़ल पत्रिका के सम्पादक डॉ.महेन्द्र अग्रवाल की सत्रहवीं किताब के रूप में प्रकाशित उनका ताज़ा ग़़ज़ल संग्रह “फ़नकारी सा कुछ तो है“ बहुत ही नायाब गजलों का संग्रह है। इस संग्रह में संग्रहीत यह ग़ज़ल देखें -

कैसे बताएं फूल सा कब तक खिला रहा
देखा है कभी जिसने बदन बोलता हुआ

अपने ही जैसे शख्स़ की उसको तलाश थी
बस्ती में पागलों की तरह खोजता फिरा

इक उम्र तक किसी से कभी बात भी न की
हंसकर मिला जो कोई वहीं चींखने लगा

घर में भी उम्र भर मुझे घर ढूंढना पड़ा
इक उम्र हुई अब तो बदन टूटने लगा

डॉ. महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों में भाषाई बंधनों से मुक्त हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं को बख़ूबी गूंथ कर कहे गये उनके मिसरे अभिव्यक्ति का सहज माध्यम बन कर इन्हें पढ़ने- सुनने वालों के लिए आसानी से ग्राह्य हो कर शायरी की दुनिया की सैर कराते हैं। वे साधारण बोलचाल की उर्दू के साथ हिन्दी मिश्रित भाषा में ग़ज़लें कह रहे हैं । यथार्थ का चित्रण उनकी ग़ज़लों में सहज ही दिखाई देता है, उदाहरण देखें -

अपनी ही शख्स़ियत से बहुत दूर हो गया
दुनिया के साथ चलने का दस्तूर हो गया

तूफां में अपना हाथ बढ़ाता भी किस तरफ?
पगड़ी बचाए रखने को मज़बूर हो गया

ऊंचाइयों से जोश में मारी छलांग जो
गिरकर पहाड़ियों में बदन चूर हो गया

आने लगी विदेश से दावत जो अब मुझे
अपने शहर में यकबयक मशहूर हो गया

मुश्किल समय में सर पे थी मां बाप की दुआ
दुश्मन सभी के सामने बेनूर हो गया

ग़म और ख़ुशी के अहसासों को बड़े नाजुक ढ़ंग से अपने शेरों में पिरोया है डॉ. अग्रवाल ने। महिलाओं के प्रति उनके मन में बहुत आदर, स्नेह और कोमल भावनात्मक रिश्तों का ज़ख़ीरा है । वे कहते हैं ….

न बुझ सकी है उसी तिश्नगी से डरता हूं
उदास रात की आवारगी से डरता हूं

भटक रहा हूं जो बचपन से ही अंधेरों में
मिले भी ख्वाब में तो रोशनी से डरता हूं

बहन की, सास की, मां की, बहू की, बेटी की,
सिसक रही है उसी ज़िन्दगी से डरता हूं

न कुछ कहूं, न सुनूं, हो न फिर महाभारत
तमाम उम्र यहां द्रोपदी से डरता हूं

मैं चाहता हूं रहूं साथ में अदीबों के
मैं रोज़ सर पे खड़ी त्रासदी से डरता हूं

डॉ. अग्रवाल को छोटी बहर की ग़ज़लों में भी बड़ी बात कह जाने की महारत हासिल है, ये ग़ज़ल देखें -

रास्ते में कदम कदम जैसे
जी लिए हम कई जन्म जैसे

जिस तरह सोचती है ये दुनिया उस तरह के नहीं है हम जैसे

आख़िरी बार उसको यूं देखा रुक गई हो वहीं कलम जैसे

मेरे अहसास के सफ़े गीले
मेरी क़िस्मत में सिर्फ़ ग़म जैसे

नाग नागिन से आस्तीनों में
आप लोगों के हैं करम जैसे

शायरी फन ए शायरी भी हो
शेर कहते नहीं भरम जैसे

ग़ज़ल में रचे बसे शायर डॉ. महेन्द्र अग्रवाल ने जिन ऊंचाइयों को छूआ है, वहां तक पहुंचना हर किसी के वश में नहीं है। साहित्य सागर पत्रिका ने उन पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया था। जिसमें उनके कृतित्व, व्यक्तित्व पर महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गई है। डॉ. अग्रवाल की शायरी बेहद दिलकश है। उनकी ये ग़ज़ल “फनकारी सा कुछ तो है” में संग्रहीत बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है -

यहां है कौन जिसे कोई गम नहीं होता
तुम्हें है ज़्यादा तो मुझे भी कम नहीं होता

तमाम उम्र रुलाती है ज़िन्दगी सबको
नहीं वो आंख या दामन जो नम नहीं होता

जहां चिराग जलाए हैं हाथ से मैंने
वहां हवा के थपेड़ों में दम नहीं होता

सलीकेदार कहन बांधती है मिसरों को
समझ हो फन की तो शेरों में जम नहीं होता

सियासी दांव ने सर पर बिठा दिया फिर भी
‘नमूना’ गांव का यूं मोहतरम नहीं होता


'फनकारी सा कुछ तो है' का विमोचन

रविवार, अक्तूबर 28, 2018

ग़ज़ल... किसको फ़ुरसत - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
दहशत के ख़त
जीवन आहत

चिंताओं की
मिली विरासत

चौराहों पर
प्रश्न व्यक्तिगत

बंद सिटकनी
टूट गिरी छत

अपना ही शव
ढोती औरत

प्यार निगलकर
हंसती नफ़रत

सुने कहानी
किसको फ़ुरसत

वही फ़लसफ़ा
वही हिक़ारत

किससे “वर्षा”
करें शिकायत



शुक्रवार, अक्तूबर 26, 2018

कमलेश श्रीवास्तव की ग़ज़लें

Dr. Varsha Singh
मध्य प्रदेश के विदिशा में 14 अगस्त 1960 को जन्में कमलेश श्रीवास्तव लगातार ग़ज़लें लिख रहे हैं। अभी तक ‘वक़्त का सैलाब’ सहित उनके अनेक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके ताज़ा ग़ज़ल संग्रह "क्या मुश्किल है" में उनकी 125 ग़ज़लें संग्रहीत हैं जिनमें ज़िन्दगी का सम्पूर्ण सार मौज़ूद है। हंसी-ख़ुशी, उल्लास-प्रेम की मिठास है तो यथार्थ का कड़ुवापन भी है। संघर्षों का लेखा जोखा है तो मधुर पलों की लयात्मकतायुक्त गाथा भी है। कमलेश ने गज़ल के माध्यम से ज़िन्दगी के हर पहलू को अपनी ग़ज़लों में समाहित किया है। उनके अशआर ग़ज़लप्रेमियों के दिलोदिमाग़ पर अपनी गहरी छाप छोड़ने में सक्षम हैं।
"क्या मुश्किल है " में संग्रहीत यह ग़ज़ल देखें -
लफ़्ज़ की चाशनी में घुलेगी नहीं ।
बेरुख़ी आपकी अब छुपेगी नहीं ।

पंख कतरे हैं तुमने मेरे प्यार के ।
बेपरों की ये चिड़िया उड़ेगी नहीं ।

मज़हबी मेल लाज़िम है इस मुल्क़ में ।
बात बिगड़ी अगर तो बनेगी नहीं ।

एक लड़की जो तन कर खड़ी हो गई ।
सामने ज़ालिमों के झुकेगी नहीं ।

ज़िन्दगी की लकीरें मिटेंगी मगर ।
एक तस्वीर दिल से मिटेगी नहीं ।

वक़्त गुज़रेगा , हम भी गुज़र जायेंगे ।
उम्र की ये नदी फिर बहेगी नहीं ।

गाँव कल फिर नये और बस जायेंगे ।
दिल की बस्ती जो उजड़ी बसेगी नहीं ।

कमलेश श्रीवास्तव फेसबुक पर निरंतर सक्रियता बनाये हुए हैं। उनकी फेसबुक लिंक पर जा कर उनकी ग़ज़लें पढ़ी जा सकती हैं। https://www.facebook.com/kamlesh.shrivastava.585
वे अपनी ग़ज़लों में जहां आशावादिता का हाथ थामे नज़र आते हैं वहीं वे सारी दुनिया की ख़ुशहाली के लिए हाथ उठाकर दुआ करते नज़र आते हैं। कमलेश कहते हैं -

ज़िन्दगी की शाम कुछ निर्मल बना दे ।
या ख़ुदा अब रूह को संदल बना दे ।

ये ग़मों की धूप ढलती ही नहीं है ।
अब मेरे एहसास को बादल बना दे ।

ज़िन्दगी का रक़्स फीका है अभी तक ।
अब किसी के प्यार को पायल बना दे ।

तू अगर चाहे तो क्या मुमकिन नहीं है ।
अश्क़ मेरे चूम , गंगाजल बना दे ।

छाँव की बेहद ज़रूरत है मुझे अब ।
इस दुपहरी को ही तू पीपल बना दे ।

मैं ये शहरी ढंग कब तक जी सकूँगा ।
तू किसी वन की मुझे कोयल बना दे ।

ख़ुद शजर के हाथ में भी ये नहीं के ।
ख़ुश्क पत्ते को नई कोंपल बना दे ।

Kamlesh Shrivastava
 " क्या मुश्किल है " में शामिल उनकी ग़ज़लें 21वीं सदी की शायरी की नायाब मिसाल हैं -   

अश्क़ों से अभिषेक किया है पत्थर की मूरत का ।
क्या अंदाज़ लगाओगे तुम लोग मेरी हालत का ।

ख़ुशियों की तहरीरों में भी ग़म के ही किस्से हैं ।
पन्ना पन्ना पढ़ डाला मैंने अपनी किस्मत का ।

तिल तिल कर मरना किसको कहते हैं मुझसे पूछो ।
हर दिन मुरझाता है कोई फूल मेरी चाहत का ।

जिस दिन तुम मेरे काँधे पर सर रख कर सोई थीं ।
उस दिन मैंने देख लिया था इक कोना जन्नत का ।

सच बोलूं तो मैंने अपने इस जीवन में यारो ।
सिर्फ़ इबादत में काटा है हर लम्हा फ़ुर्सत का ।

रसायन शास्त्र में एम.एससी. की उपाधि प्राप्त कमलेश श्रीवास्तव पिछोर, म.प्र. में म.प्र. वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन में ज़िला प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहते हुए बेहतरीन ग़ज़लें लिख कर साहित्य सेवा कार्य बख़ूबी कर रहे हैं।


 

बुधवार, अक्तूबर 24, 2018

ग़ज़ल ... सच तो ये है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

रेशमी फूल हवा भी ताज़ा
ख़त मेरे नाम क्यों नहीं आया

झील परछाइयों से लबालब है
उस तरफ है शज़र, इधर छाया

दौड़ती भागती हुई दुनिया
इस सड़क को कहीं नहीं जाना

सच तो यह है कि एक ख़ामोशी
कह रही आज शोर की गाथा

धुपधुपाती है बत्ती सी
सांस का देह से यही नाता

उम्र मेरी तमाम भीग गई
चूम कर वो गया मेरा माथा

धूप- "वर्षा" का ये अजब मौसम
बर्फ सी रात, दिन हुआ पारा


मंगलवार, अक्तूबर 23, 2018

ग़ज़ल ... नदी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

रेत पानी बुनी एक दरी है नदी
आजकल तो लबालब भरी है नदी

पतझड़ों की उदासी, हंसी फूल की
मौसमी सिलसिलों से घिरी है नदी

आग से बिजलियों से इसे ख़ौफ़ क्या
प्यार जैसी हमेशा खरी है नदी

प्यास सबकी अलग, चाह सबकी जुदा
सबकी अपनी अलग दूसरी है नदी

बंधनों में बंधी घाट से घाट तक
मुस्कुराती सदा बांवरी है नदी

हर लहर पीर बो कर गई देह में
वक़्त की आरियों से चिरी है नदी

धूप में हर लहर सुनहरी सी दिखे
साथ "वर्षा" रहे तो हरी है नदी


हरेराम समीप की ग़ज़लें

Dr. Varsha Singh
नरसिंहपुर , मध्यप्रदेश के ग्राम मेख में 13 अगस्त 1951 को जन्मे हरेराम समीप जितने अच्छे कवि हैं, उतने ही बेहतरीन ग़ज़लकार भी हैं। उनके निम्नलिखित ग़ज़ल संग्रह चर्चित रहे हैं :-
- हवा से भीगते हुए (1990)
- आँधियों के दौर में (1993) पुरस्कृत
- कुछ तो बोलो (1998)
- किसे नहीं मालूम (2004) पुरस्कृत
- इस समय हम (2011)
ब्लॉग लेखन में भी हरेराम समीप निरंतरता बनाए हुए हैं उनके ब्लॉग का पता है
http://hareramsameep.blogspot.com/?m=1
सम्पर्क हेतु
ईमेल: sameep395@gmail.com
Hareram Sameep

हरेराम समीप ने विविध भारतीय भाषाओं की हिन्दी कथा पत्रिका 'कथा भाषा' त्रैमासिक का 1987 से 1994 तक सम्पादन किया जिसके उनके कार्यकाल में अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए। 

'दैनिक देशबन्धु' जबलपुर तथा 'नर्मदाज्योति दैनिक' जबलपुर में भी सम्पादन कार्य किया । उनके द्वारा 'तुलसी रंगत' तथा 'अभिव्यक्ति' त्रैमासिक में सम्पादन सहयोग जारी है. उन्होंने
'निष्पक्ष भारती' मासिक के ग़ज़ल अंक और  'मसि कागद' त्रैमासिक के दोहा अंक का संपादन  2000 और 2003 में किया।
 "समकालीन महिला ग़ज़लकार" संग्रह का कुशल सम्पादन भी हरेराम समीप ने किया है। जिसमें मेरी यानी डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों को भी शामिल किया गया है।
Samkaleen Mahila Rachanakar
          हरेराम समीप की सीधी-साधी सरल भाषा में कही गई ये ग़ज़लें जीवन के गंभीरतम प्रश्नों से रूबरू कराने में सक्षम हैं।
स्याह रातों  में  ये जुगनू की ज़िया है तो  सही 
दिल के बहलाने को  इक लोकसभा है तो  सही।

देखकर रेल के डिब्बे बुहारता बचपन
लोग कह देते हैं  पाँवों  पे खड़ा है तो  सही।

जब भी मिलता है वो झुँझला के बात करता है
कुछ न कुछ उसको जमाने से गिला है तो सही।
हरेराम समीप पुस्तक मेला में

      ये ग़ज़लें उनके अनुभवों की थाती हैं। जीवन और उसके अनुभव से जुड़ी ये ग़ज़लें और रुचिकर होने के साथ ही दिलो-दिमाग़ पर गहरी छाप छोड़ जाने वाली हैं।
एक ही मंजिल है उनकी एक ही है रास्ता 
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे  

मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर 
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे।

कथ्य और भाव दोनों दृष्टियों से हरेराम समीप की ग़ज़लें पठनीय हैं, गुनगुनाने योग्य हैं।

दावानल सोया है कोई जहाँ एक चिंगारी में 
ठीक वहीं पर हवा व्यस्त है तूफॉँ की तैयारी में 

जिद्दी बच्चे जैसा मौसम समझे क्या समझाये क्या
जाने क्या क्या बोल रहा है हिलकारी सिसकारी में

सागर के भीतर कि लहरें अक्सर बतला देती हैं 
कुंठा का रस्ता खुलता है हिंसा कि औसरी में 

वो लौटी है सूखी आंखे तार तार दामन लेकर
जाने उसने क्या देखा था सपनों के व्यापारी में 

जब से यहाँ नगर में आया आकार ऐसा उलझा हूँ 
भूल गया हूँ घर ही अपना घर कि जिम्मेदारी में   

अपने छोटे होते कपड़े बच्चों को पहनता हूँ 
तहकर के रक्खे  जो मैंने आँखों कि अलमारी में 

तेरहवी के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च किए हैं अम्मा की बीमारी में 

इससे बेहतर काम नहीं है इस अकाल के मौसम में 
आओ मिलकर खुशबू खोजें काँटों वाली क्यारी में 

हरियाणा साहित्य अकादमी समेत अनेक पुरस्कार एवं सम्मान से हरेराम समीप को सम्मानित किया जा चुका है।
पुरस्कार प्राप्त करते हरीराम समीप


रविवार, अक्तूबर 21, 2018

ग़ज़ल .... नित्य कथाएं भिन्न नहीं हैं - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
चौराहों पर चर्चा होती है अक्सर अखबारों की
लूटपाट की, हत्याओं की, डाकू की, बटमारोंं की

घर दफ्तर के बीच जिंदगी यहां बंधी है खूंटे से
शहरों से बेहतर लगती है बस्ती अब बंजारों की

कुछ तो खामी है नियमों में, घोटाला कानूनों में
गली-गली में भीड़ लगी है पढ़े-लिखे बेकारों की

यहां-वहां आतंक हर तरफ, शांति व्यंग्य सी लगती है
खूनी छाया मंडराती है पल बंदूकों-तलवारों की

सुबह शाम हर पहर एक सा, परिवर्तन के चिह्न नहीं
नित्य कथाएं भिन्न नहीं है सोम, शुक्र, रविवारों की

गर्दिश के ये दिन हैं भैया, फल भविष्य का क्या कहिए
एक दशा है नक्षत्रों की, तेरे-मेरे तारों की

अमरबेल से चाटुकारिता फैल रही है दिन दूनी
जिनको फन का ज्ञान नहीं है कद्र उन्हीं फनकारों की

आज भूमि भारत की व्याकुल, रक्तपात की बाढ़ों से
आवश्यकता पुनः यहां है महापुरुष अवतारों की

शायद कोई अपना भी हो, नदिया के उस पार कहीं
बाट जोहती कब से किश्ती, मांझी की, पतवारों की

कांटो की बन आई "वर्षा" , बगिया भरी बबूलों से
खिलने से पहले मुरझाती हैं कलियां कचनारों की


ग़ज़ल ..... न पूछो - डॉ.वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

लगी कहां पर चोट न पूछो
हुआ कहां विस्फोट न पूछो

पैबंदों की भीड़ है यहां है
किसका साबुत कोट न पूछो

क्यों हर बार पीटी है भैया
सच्चाई की गोट न पूछो

छुपे हुए हैं कितने आंसू
मुस्कानों की ओट न पूछो

बीते दिन की परछाई क्यों
मन को रही कचोट न पूछो

जीवन कैसे क्रय करते हैं
कागज के ये नोट न पूछो

जो चाहा वह मिला न "वर्षा"
क़िस्मत में क्या खोट न पूछो


ग़ज़ल .... अक्सर ऐसा होता है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
अक्सर ऐसा होता है 
मौसम आंसू बोता है

बिछुड़ा पत्ता डाली से 
चट्टानों पर सोता है 

उम्मीदों का इक झरना 
मन की देह भिगोता है 

कुछ पाने की चाहत में 
सारा जीवन खोता है 

रातों के सन्नाटे में 
यादों का शिशु रोता है 

मजबूरी का तीखापन 
रह-रह जिया करोता है 

समय पुस्तकों के भीतर 
सूखे फूल संजोता है 

दुख ही घनीभूत होकर 
मन की पीड़ा धोता है 

नियतिचक्र चुपके चुपके 
"वर्षा" दर्द  पिरोता है



शनिवार, अक्तूबर 20, 2018

सपने....ग़ज़ल -डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


बहुत लुभाते बेघर को घर के सपने
घर में लेकिन आते बाहर के सपने

प्यूरीफायर देख तैरते आंखों में
पोखर, पनघट वाले, गागर के सपने

अपनों से अपमानित बूढ़ों से पूछो
कैसे उनकी चाहत के दरके सपने

वहशीपन ने बचपन के पर काट दिये
आंसू बन कर छलके अम्बर के सपने

कर्जे की गठरी से जिनकी कमर झुकी
कृषकों को आते हैं ठोकर के सपने

कंकरीट के जंगल वाले शहरों में
धूलधूसरित आंगन, छप्पर के सपने

सांसें जिसकी रखी हुई हों गिरवी में
दिल में घुटते बंधुआ चाकर के सपने

“वर्षा” की उम्मीदें, बादल आयेंगे
इक दिन पूरे होंगे सागर के सपने
                              -डॉ. वर्षा सिंह

#ग़ज़लवर्षा

रवि शर्मा की ग़ज़लें

Dr. Varsha Singh
बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवि शर्मा प्रेम ज्योति फाउंडेशन के संस्थापक एवं चेयरमैन हैं । लोकोपकारक और समाजसेवी हैं। वे साथ ही बहुत अच्छे कवि भी हैं। उनकी ग़ज़लों में रूमानियत इस तरह से रची बसी है मानों फूल में ख़ुशबू, मानों झरने में बूंदें और मानों गीत में सरगम…..

ज़िन्दगी का वो फ़साना ना रहा
दिल भी अब ये दीवाना ना रहा !

भीगें बरसातों में सोचा बरसों से
आज पर मौसम सुहाना ना रहा !

बेरूखियों से लफ़्ज भी गूँगे हुए
और वो दिलकश तराना ना रहा !

परछाँईयाँ पलकों में धुँधली हुई
कनखियों का मुस्कुराना ना रहा !

क्यूँ सुनाऊँ तुमको मैं शिकवे गिले
प्यार जब अपना पुराना ना रहा !

रवि शर्मा की की ग़ज़लों में जिंदगी के इंद्रधनुषी रंग बड़ी खूबसूरती से बिखरे हुए हैं। प्रस्तुत है उनकी ये ग़ज़ल……
Ravi Sharma

बस इक लम्हा तेरी ख़ुशबू का  गुज़ारा हमने ,
ज़िन्दगी भर उसे फिर दिल में  संवारा हमने !
जब भी यादों ने ख़्वाबों से ,जगाया है हमें ,
ले के होंठों पे हँसी तुमको पुकारा हमने !
कोई कहता हमें पागल तो दीवाना भी कोई ,
किया दुनिया का यूँ हँसना भी गंवारा हमने !
वक़्त चलता गया पानी के नज़ारों की तरह ,
चाहे कितना किया कश्ती से किनारा हमने !
याद है शाम वो ठहरी तेरी पहली वो नज़र ,
तब से खोया है हर इक साँस हमारा हमने !

रवि शर्मा की ग़ज़लों में चमत्कारी ढंग से प्रेम मानों सदेह उपस्थित है। शब्द शब्द कोमल भावनाओं को मुखरित करने वाला है……
Ravi Sharma

जब भी  दिल की ज़ुबान  सुनते हैं
ख़्वाब फिर  कुछ नये से  बुनते हैं !

रात भर  देख देख  तारों को
तभ भी  लाखों में एक  चुनते हैं !

टूटा ग़र  तारा  आसमां से कभी
अपनी आँखों के  तारे  गिनते हैं !

ग़र चुभें  आँखों में  टूटे तारे कभी
पलकों से  आँसुओं को  बिनते हैं !

ग़र हुई  तार तार  रूह भी कभी
रूई हसरत की फिर से  धुनते हैं !

Ravi Sharma
रवि की ग़ज़लगोई दिल को छू लेने वाली है। वे जब ग़ज़ल कहते हैं तो जैसे अनायास ही प्रकृति से बातें करते हुए प्रेम में डूब जाते हैं। उनकी ये ग़ज़ल देखें....



ख़ुशबू आई है  हवाओं में  बहारों की तरह
जब से पाया तुझे  ख़्वाब में  यारों की तरह !

मुझको जीना है  तेरे प्यार में  बाहों में तेरी
नहीं मरना मुझे  गुमनाम  बीमारों की तरह !

तू मेरी आँखों में  खिलती है  गुलशन की तरह
और तुझे चाहूँ  दिलकश मैं  नज़ारों की तरह !

तुझको माना है  हमेशा इक  अल्हड़ सी नदी
और तेरी चाह में  ठहरा हूँ  किनारों की तरह !

अब तो आजा कभी  धीरे से तू  पहलू में मेरे
या मुझे भर ले तू  बाहों में  सितारों की तरह !

रवि शर्मा की ख़ूबसूरत ग़ज़लोंं का रसास्वादन करने के लिये इस Link पर जाया जा सकता है....
http://www.ravisharma.in/category/poetry/ghazal/
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