शुक्रवार, अक्तूबर 05, 2018

ग़ज़ल यात्रा के सहयात्री


Dr. Varsha Singh
ग़ज़ल की अपनी पृष्ठभूमि और हिंदी साहित्य की सामंती एवं दरबारी मानसिकता विरोधी प्रकृति इसका प्रमुख कारण रहा है। फ़ारसी साहित्य में विलासी राजाओं के विलास और मनोरंजन के लिए गज़लकार आशिक और माशूका की रोमैंटिक कथाओं को अभिव्यक्त करते थे। इसमें आम जनता के दुःख दर्द या प्रगतिशील चेतना की अभिव्यक्ति की कोई संभावना नहीं थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने हिंदी की साहित्य परंपरा में इसे सामंती एवं दरबारी चेतना मानते हुए ऐसे विषयों को साहित्य के लिए वर्जित घोषित किया है । यही कारण है कि जब शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार के दायरे से बाहर आकर ग़ज़ल को लोक जीवन की सच्चाई और समग्रता से जोड़ने का ‘दुस्साहस’ किया तो डॉ. राम विलास शर्मा ने यह कहकर खारिज कर दिया कि“ ग़ज़ल तो दरबारों से निकली हुई विधा है, जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है !“ लेकिन भारतीय कवियों ने उनके इस विचार को झुठलाते हुए ग़ज़ल को भारतीय मानकों पर स्थापित ही नहीं किया बल्कि बेहद लोकप्रिय विधा बना दिया।
शमशेर बहादुर सिंह
शमशेर बहादुर सिंह की यह ग़ज़ल प्रगतिशील मूल्यों को साथ ले कर चलने में सक्षम है -
उलट गए सारे पैमाने कासागरी क्यों बाकी है।
देस के देस उजाड़ हुए दिल की नगरी क्यों बाकी है।

कौन है अपना कौन पराया छोड़ो भी इन बातों को
इक हम तुम हैं खैर से अपनी पर्दादरी क्यों बाकी है।

शायद भूले भटके किसी को रात हमारी याद आई
सपने में जब आन मिले फिर बेखबरी क्यों बाकी है।

किसका सांस है मेरे अंदर इतने पास औ इतनी दूर
इस नज़दीकी में दूरी की हम सफ़री क्यों बाकी है।

बीत गये युग फिर भी जैसे कल ही तुमको देखा हो
दिल में औ' आंखों में तुम्हारी खुशनज़री क्यों बाकी है।

शोर भजन कीर्तन का है या फ़िल्मी धुनों का हंगामा
सर पे ही लाउडस्पीकर की टेढ़ी छतरी क्यों बाकी है।

धर्म तिजारत पेशा था जो वही हमें ले डूबा है
बीच भंवर के सौदे में यह एक खंजरी क्यों बाकी है।

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