सोमवार, नवंबर 26, 2018

ग़ज़ल ... जहां पे आज रेत है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

जहां पे आज रेत है, वहीं पे थी नदी कभी
जले थे प्रेम के दिये, हुई  थी रोशनी कभी

कहा था शाम को मिलेगा, सीढ़ियों पे घाट की
वो शाम घाट पर मगर, मुझे नहीं मिली कभी

चला रहे  हैं आरियां, वो जंगलों  की  देह पर
कटे हैं पेड़ जिस जगह, वहीं थी ज़िन्दगी कभी

उदास है किसान, कर्ज  के तले, दबा  हुआ
दुखों की छांव है वहां, रही जहां ख़ुशी कभी

डरा हुआ  है बालपन, डरी हुई  जवानियां
निडर समाज फिर बने, रहे न बेबसी कभी

अनेकता  में  एकता  ही  हमारी  शक्ति है
देशभक्ति की डगर, अलग नहीं रही कभी

जहां पे ”वर्षा” हो रही है, गोलियों की इन दिनों
वहां पे  अम्नो-चैन  की, बजेगी  बांसुरी कभी

     - डॉ. वर्षा सिंह

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ... आज के परिपेक्ष में लिखे लाजवाब शेर ...
    अच्छी ग़ज़ल ...

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    1. आपने सराहा मेरी ग़ज़ल को, तो यह वाकई मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं , नासवा जी !

      बहुत बहुत आभार 🙏

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