गुरुवार, नवंबर 29, 2018

ग़ज़ल ... अब नहीं होता मुझे ताज़्जुब - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

अब नहीं होता मुझे ताज्जुब किसी भी बात पर
चोट खाई सी सुबह या घाव जैसी रात पर

स्वप्न आयातित फफूंदों से जमे हैं आंख पर
और ख़्वाहिश हम रचें दुनिया समूची हाथ पर

खूंटियों पर “बुद्ध”,”लिंकन”, “वाल्टेयर” टांग कर
छेड़ते बहसें सदा हम आदमी की जात पर

चाह कर भी वे कहीं छुप-भाग पाते हैं नहीं
ज़िन्दगी रेखांकित होती है जिनके माथ पर

अधमरी सी चेतना के चिन्ह होते हैं लगे
भोथरे से फूल पर या जंग खाए पात पर

बुजबुजाती झाग वाली धूसरी धर्मांधता
थोकने की साजिशें होतीं सदा नवजात पर

क़ाग़ज़ों पर कीच, पेनों में उमसती स्याहियां
किस तरह “वर्षा” लिखें ग़ज़लें बुझी बरसात पर

         -डॉ. वर्षा सिंंह

8 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार 30 नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका श्वेता जी

      🌹🌷🌺🌷🌹

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  2. वाह जबरदस्त अदायगी आदरणीया।

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  3. रचना पढ़ते हुए जिस दर्द का अहसास होता है यही इसकी सार्थकता है

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