मंगलवार, जनवरी 22, 2019

ग़ज़ल .... ज़िन्दगी उलझी है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
ग़ज़ल
- डॉ. वर्षा सिंह

पैकेजों का जाल, ज़िन्दगी उलझी है
मत पूछो क्या हाल, ज़िन्दगी उलझी है

आज यहां हैं, होंगे कल हम और कहीं
बदल रहे हैं साल, ज़िन्दगी उलझी है

छीन लिया सुख-चैन कैरियर ने सारा
क़दम मिलाते ताल, ज़िन्दगी उलझी है

हालातों के लिए दोष देना किसको
वक़्त बदलता चाल, ज़िन्दगी उलझी है

सपनों के पत्ते बिखरे, सब रीत गया
चटक रही है डाल, ज़िन्दगी उलझी है

सोच, फ़िक्र बेकार, दाल में काला क्या!
काली पूरी दाल, ज़िन्दगी उलझी है

बोर, पम्प, बिजली पर पानी निर्भर है
सूख चुके हैं ताल, ज़िन्दगी उलझी है

जिस पर हमने नाम लिखा था चाहत का
गुमा कहीं रूमाल, ज़िन्दगी उलझी है

जिसके श्रम ने अन्न सदा उपजाया है
वही कृषक कंगाल, ज़िन्दगी उलझी है

“वर्षा” पार उतरने की ज़िद कर ली तो
फिर से बांधो पाल, ज़िन्दगी उलझी है

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http://yuvapravartak.com/?p=8590

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