शुक्रवार, मई 17, 2019

ग़ज़ल ... सोचते तो हैं मगर - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


सोचते तो हैं मगर, कुछ बोल पाते हैं नहीं।
बंद दरवाज़े हृदय के खोल पाते हैं नहीं।

सच को परदे में रखें, हम ये नहीं कर पायेंगे
झूठ को हम चाशनी में घोल पाते हैं नहीं।

जी-हज़ूरी से रहे हैं दूर कोसों उम्र भर
चाटुकारी के लिए हम डोल पाते हैं नहीं।

हर तरफ बिक्री-खरीदी, हर तरफ मक्कारियां
कोई भी शै हम यहां, अनमोल पाते हैं नहीं।

कै़द जिनको कर लिया हो ज़िन्दगी ने बेवज़ह
आखिरी दम तक कभी पैरोल पाते हैं नहीं।

जो न "वर्षा" कर सके अभिनय किसी भी मंच पर
वक़्त के नाटक में इच्छित रोल पाते हैं नहीं।

       - - डॉ. वर्षा सिंह

ग़ज़ल - डॉ. वर्षा सिंह # ग़ज़लयात्रा

4 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18 -05-2019) को "पिता की छाया" (चर्चा अंक- 3339) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    ....
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अत्यंत आभार आपका अनिता सैनी जी 🙏

      हटाएं
  2. सच को परदे में रखें, हम ये नहीं कर पायेंगे
    झूठ को हम चाशनी में घोल पाते हैं नहीं।
    सुन्दर गजल। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय वर्षा जी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी, हार्दिक आभार 🙏

      हटाएं