गुरुवार, अगस्त 22, 2019

ग़ज़ल..... शेष नहीं वे क्षण - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

       मेरी इस  को web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 19 अगस्त 2019 में स्थान मिला है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=17702

ग़ज़ल

   शेष नहीं वे क्षण...
           - डॉ. वर्षा सिंह

सर्वनाम  रह  गये गुमी  हैं संज्ञाएं ।
शब्द बिंब ही अर्थों को अब बहकाएं ।

संदर्भों ने बांध दिया संबंधों को ,
निर्धारित कर दी हैं सब की सीमाएं ।

शेष नहीं वे क्षण जो जोड़ें तन मन को ,
भीगे उजियालों से माथा सहलाएं ।

तटस्थता का राग उन्हीं ने छेड़ा है ,
आदत जिनकी उलझें, सबको उलझाएं ।

कालजयी होने का जिनको दंभ यहां, अक्सर छूटीं उनके हाथों वल्गाएं ।

समझौते की चर्चा झेल न पाई है ,
निर्णय पर कायम रहने की विपदाएं ।

अंतरिक्ष में नीड़ भला कब बन पाए ,
आश्रय देती हैं भू पर ही शाखाएं ।

अवसरवादी सुविधा भोगी सांसों को,
सहनी ही पड़ती हैं ढेरों कुंठाएं ।

व्यथा विरत कवि नहीं कभी भी हो पाये,
“ मां निषाद” वाल्मीकि रचेंगे रचनाएं ।

कहते हैं आशाओं का आकाश वृहद, चुटकी भर मैंने भी भर ली आशाएं ।

पूरी की पूरी  तस्वीर  उकेरेंगी,
भले अधूरी “वर्षा” की हैं रेखाएं ।
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#ग़ज़लवर्षा

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-08-2019) को "संवाद के बिना लघुकथा सम्भव है क्या" (चर्चा अंक- 3436) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    उत्तर
    1. अत्यंत विनम्रतापूर्वक आपके प्रति हार्दिक आभार 🙏

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  2. बहुत अच्छी उम्दा प्रस्तुति

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