गुरुवार, मई 28, 2020

ग़ज़ल | वक़्त गुज़र जाता है | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

ग़ज़ल

वक़्त गुज़र जाता है
            - डॉ. वर्षा सिंह

यादें बाकी रह जाती हैं, वक़्त गुज़र जाता है।
जिसे भूलना चाहो अक्सर, वही नज़र आता है।

जीवन की यह नदी डूब कर, पार इसे करना है,
मन में जिसके संशय हो वह, नहीं उबर पाता है।

अहसासों की दहलीज़ों को, साफ़ करो फिर देखो,
हर पल अपने साथ हमेशा, नई ख़बर लाता है।

दर्द ज़माने भर का जिसने, पाल लिया हो  दिल में,
इसमें दो मत नहीं वही तो, गीत मधुर गाता है।

सूरज का दिन से है जैसा, चंदा का रातों से
"वर्षा" का बादल से वैसा ही बेहतर नाता है।

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    मेरी यह ग़ज़ल आज web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 29.05.2020 में प्रकाशित हुई है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=33828



गुरुवार, मई 14, 2020

🤔 घर वापसी करते प्रवासी श्रमिकों की व्यथा-कथा को समर्पित | ग़ज़ल | दर -दर की ठोकर लिक्खी है | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

घर वापसी करते प्रवासी श्रमिकों की व्यथा-कथा को समर्पित एक ग़ज़ल

दर -दर की ठोकर लिक्खी है
           - डॉ. वर्षा सिंह

कांधे पर है बोझ गृहस्थी का पांवों में छाले हैं।
दर -दर की ठोकर लिक्खी है, खोटी क़िस्मत वाले हैं।

गांव, गली, घर छोड़ा था सब, पैसे चार कमाने को,
अब जाना ये महानगर भी दिल के कितने काले हैं।

भूख-प्यास से बढ़ कर भैया, नहीं बिमारी कोई है,
क़दम-क़दम भुखमरी-ग़रीबी, यहां सैकड़ों ताले हैं।

अम्मा, बाबू, चंदा, बुधिया, गुड्डू, मुन्नी, रामकली
एक मजूरी के बलबूते कितने प्राणी पाले हैं।

दर्ज़ रहेंगे तारीखों में "वर्षा" मुश्किल वाले दिन,
अगर न टूटी सांस कहेंगे- 'दुर्दिन देखे-भाले हैं।'

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आज web magazine युवाप्रवर्तक दि. 14.05.2020 में मेरी यह ग़ज़ल "दर -दर की ठोकर लिक्खी है" प्रकाशित हुई है...
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏



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http://yuvapravartak.com/?p=32685

बुधवार, मई 13, 2020

ग़ज़ल | प्रवासी श्रमिक | क्या दे पाएगा देहात | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

      मेरी ग़ज़ल प्रवासी श्रमिकों के प्रति ... "क्या दे पाएगा देहात"...यह आज web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 13.05.2020 में प्रकाशित हुई है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=32540

*ग़ज़ल* संदर्भ : प्रवासी श्रमिक

क्या दे पाएगा देहात
        -डॉ. वर्षा सिंह

पत्ता-पत्ता दिन मुरझाया, फूल-फूल मुरझायी रात।
चर्चाओं के दौर चले पर, रही अधूरी उसकी बात।

"मैं" और "हम" के बीच फ़ासला, शर्तों से कब मिट पाया,
प्यार कहां तब शेष रहा जब, जीत-हार की बिछी बिसात।

ऊंचे पद पा लिए सिफ़ारिश, रिश्तेदारी के चलते,
टिकी रही निचली सतहों पर किन्तु विचारों की औक़ात।

कड़वे सच के कौर घुटक कर जैसे-तैसे आए हैं,
शहरों से खाली लौटों को, क्या दे पाएगा देहात।

अक्सर कोई भीगा बाहर, कोई भीतर से भीगा,
"वर्षा" में सब भीगे लेकिन, एक न हो पाई बरसात।
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सोमवार, मई 04, 2020

कोरोना काल में किताबें और शायरी - डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh
इस कोरोना काल में टोटल लॉकडाउन की स्थिति में किताबों का बहुत बड़ा सहारा है।
किताब की अहमियत पर यह शेर देखें...
क़ब्रों में नहीं हम को किताबों में उतारो
हम लोग मोहब्बत की कहानी में मरे हैं
- एजाज तवक्कल

यूं तो  स्कूलों- कॉलेजों में पाठ्यक्रम की किताबों से ख़ूब जी चुराते हैं सभी, लेकिन बाद में किताबों से मोहब्बत हो जाती है...
देखी नही किताब उठाकर,
खेल-कूद में समय गँवाया ।
अब सिर पर आ गई परीक्षा,
माथा मेरा चकराया ।।

नाहक अपना समय गँवाया,
मैं यह ख़ूब मानता हूँ ।
स्वाद शून्य का चखना होगा,
मैं यह ख़ूब जानता हूँ ।।
- रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

किताबों में पढ़े हुए सबक विपरीत परिस्थितियों में याद आते हैं....
कुछ और सबक़ हम को ज़माने ने सिखाए
कुछ और सबक़ हम ने किताबों में पढ़े थे
- हस्तीमल हस्ती

किताबों की दुनिया में जा कर व्यक्ति स्वयं की चिन्ताओं को भूल जाता है....
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
- जाँ निसार अख़्तर

     तो मित्रों, इन दिनों किताबें ही सहारा हैं Stay Home Stay Safe with favorite books of Ghazals 😊 🙏