मंगलवार, जुलाई 14, 2020

चुनावी समर | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
      उपचुनावों की हलचल ज़ारी है। प्रस्तुत है मेरी एक ग़ज़ल....

चुनावी समर
      - डॉ. वर्षा सिंह

फिर चुनावी समर की तैयारियां होने लगीं
फिर हवाएं बोझ नारों का यहां ढोने लगीं

फिर नई संकल्प गाथा, फिर नई विरुदावली
फिर नए जल से दिशाएं मुख मलिन धोने लगीं

चिन्ह ही पर्याय हैं अब, व्यक्ति के व्यक्तित्व के
रूप की परछाइयां पहचान फिर खोने लगीं

इश्तिहारों की धरा पर उग रहे चेहरे नए
स्वप्न जीवी कल्पनाएं चाहतें बोने लगीं

मात-शह की फिर बिछी फड़, फिर छिड़ा संग्राम है
हर जगह उद्बोधनों की खेतियां होने लगीं

खोखले वादे पहनकर झूमती अट्टालिका
सोचकर परिणाम लेकिन झुग्गियां रोने लगीं

वायदों की नींव "वर्षा" छद्म की कारीगरी
इस महल में दफ़्न हो सच्चाईयां सोने लगी

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7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-07-2020) को     "बदलेगा परिवेश"   (चर्चा अंक-3763)     पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी 🙏

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  2. आपके प्रति बहुत बहुत आभार प्रिय पम्मी जी 🙏

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  3. समसामयिक घटनाचक्र पर बेहतरीन ग़ज़ल
    शुभकामनाए वर्षा जी

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