शुक्रवार, जनवरी 08, 2021

शायद कोई अपना भी हो | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh


शायद कोई अपना भी हो

                  -डॉ. वर्षा सिंह


चौराहों पर चर्चा होती है अक्सर अख़बारों की

लूटपाट की, हत्याओं की, डाकू की बटमारों की


कर्फ्यू, दंगे, आत्मदाह का ऐसा मौसम आया है

भूल गया मन बातें करना ख़ुशियों की, त्योहारों की


घर-दफ्तर के बीच ज़िन्दगी यहां बंधी है खूंटे से

शहरों से बेहतर लगती है बस्ती अब बंजारों की


कुछ तो खामी है नियमों में, घोटाला कानूनों में 

गली-गली में भीड़ लगी है पढ़े-लिखे बेकारों की


सुबह-शाम हर पहर एक-सा, परिवर्तन के चिन्ह नहीं

नित्य कथाएं भिन्न नहीं हैं, सोम, शुक्र, रविवारों की 


गर्दिश के ये दिन हैं भैया, फल भविष्य का क्या कहिए 

एक दशा है नक्षत्रों की, तेरे-मेरे तारों की 


आज भूमि भारत की व्याकुल, रक्तपात की बाढ़ों से 

आवश्यकता पुनः यहां है महापुरुष-अवतारों की


शायद कोई अपना भी हो नदिया के उस पार कहीं 

बाट जोहती कब से किश्ती, मांझी की, पतवारों की 


कांटों की बन आई "वर्षा", बगिया भरी बबूलों से 

खिलने से पहले मुरझाती हैं कलियां कचनारों की


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

15 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! बहुत उम्दा ग़ज़ल। आभार और बधाई।

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  2. आह ! पूर्णतः भिन्न प्रकृति की एवं यथार्थ को उद्घाटित करती ग़ज़ल । ऐसी ग़ज़ल तो एक एक संवेदनशील हृदय से ही फूट सकती है । इसकी क्या प्रशंसा करूं ? पढ़कर स्तब्ध रह गया हूँ ।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद 🙏💐🙏

      आदरणीय माथुर जी, आपकी टिप्पणी सदैव मेरा उत्साहवर्धन करती है, बहुत बहुत आभार आपकी सद्भावनाओं के प्रति 💐🙏💐
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (10-01-2021) को   ♦बगिया भरी बबूलों से♦   (चर्चा अंक-3942)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    1. आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी,
      मैं हृदय से आपके प्रति आभारी हूं कि आपने आगामी कल आयोजित होने वाली चर्चा में मेरी पोस्ट को शामिल किया है... साथ ही मेरी पोस्ट से ही शीर्षक पंक्ति का चयन किया है।
      पुनः बहुत-बहुत आभार एवं धन्यवाद 🙏🌺💐🌺🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  4. वर्तमान हालातों का यथार्थ चित्रण

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय अनिता जी 🙏🌺🙏

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  5. सुबह-शाम हर पहर एक-सा, परिवर्तन के चिन्ह नहीं
    नित्य कथाएं भिन्न नहीं हैं, सोम, शुक्र, रविवारों की

    यथार्थपरक बेहतरीन ग़ज़ल 🌹🙏🌹

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    1. बहुत धन्यवाद प्रिय बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ❤️🙏❤️

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  6. बहुत सार्थक, यथार्थ परक ग़ज़ल हर शेर लाजवाब एहसासों। से लबरेज।
    उम्दा सृजन।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आपको आदरणीया कुसुम कोठरी जी 🙏

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  7. वाह! बहुत सुन्दर।
    उम्दा ग़ज़ल।
    सादर।

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