Dr. Varsha Singh |
20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शायरों ने आम ज़िन्दगी की दुश्वारियों को अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया और उसे पूरी संज़ीदगी से सामने रखा।
स्व. दुष्यंत कुमार |
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
ग़ज़ल आज कविता के समांतर खड़ी है और लगातार समृद्ध होती जा रही है।
इकराम राजस्थानी |
हर तरह के रंग में फिट हो गए
लोग अब दुनिया में गिरगिट हो गए
अफसरों से वो मिलेंगे सिर्फ जो
गेट पर लटकी हुई चिट हो गए
चोर-डाकू और लुटेरे लोग भी
सब के सब संसद में परमिट हो गए
सच हर युग में सदा सूली चढ़ा
झूठ के भोंपू मगर हिट हो गए
Rahat Indori |
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था
तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़
मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था
बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा
मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था
मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना
मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था
मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं
मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था
Dr Varsha Singh |
सच्चाई की काया देखो, कितनी दुबली- पतली है
जब-जब खुदे पहाड़ यहां पर हरदम चुहिया निकली है
यूं तो हर मुद्दे पर पूछा - “ कहो मुसद्दी ! कैसे हो ? “
बोल न पाया लेकिन कुछ भी, मुंह पर रख दी उंगली है
‘बुधिया’ के मरने पर निकले ‘घीसू’- ‘माधव’ के आंसू
वे आंसू भी नकली ही थे, ये आंसू भी नकली है
कोई भी आवाज़ दबाना, अब इतना आसान नहीं
चैनल की चिल्लम्पों करती, चींख-चींख कर चुगली है
संस्कार में लगा पलीता किस- किस से क्या-क्या कहिये
“भारत” नहीं “इंडिया वाली’’ ये तो पीढ़ी अगली है
चकनाचूर हुआ है दर्पंण, आज मुखौटा कल्चर में
ढूंढ रही है एक आईना, बेशक “वर्षा” पगली है
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आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०८ अक्टूबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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शुक्रिया आपका 🙏
हटाएंवर्षा जी की व्यंग्यात्मक ग़ज़ल ने सभ्य समाज के बनावटीपन की अच्छी तरह से पोल खोली है. पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागती हुई हमारी नई पीढ़ी खुद अपना वुजूद खोती जा रही है और दुःख की बात यह है कि वह इसे तरक्क़ी का नाम दे रही है.
जवाब देंहटाएंगोपेश जैसवाल जी, बहुत बहुत आभार।
हटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंतीनों गजलें अपना अपना प्रभाव छोडती हैं ... गज़ल को नया मुकाम देती हैं ...
दिगम्बर नासवा जी , बहुत बहुत. शुक्रिया आपका 🙏
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