Dr. Varsha Singh |
चंद्रसेन विराट |
विराट जी की यही आत्मीयता आज उनकी चिरविदा की बेला को बोझिल बनाते हुए हमें शोकग्रस्त कर रही है।
चंद्रसेन विराट डॉ. (सुश्री) शरद सिंह के साथ |
श्रीमती मिश्रा, विवेकरंजन श्रीवास्तव, चंद्रसेन विराट एवं डॉ. (सुश्री) शरद सिंह |
याद आ रही है उनकी यह ग़ज़ल -
याद आयी, तबीयत विकल हो गई.
आँख बैठे बिठाये सजल हो गई.
भावना ठुक न मानी, मनाया बहुत
बुद्धि थी तो चतुर पर विफल हो गई.
अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर.
एक चट्टान थी वह तरल हो गई.
रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली.
वह सदा को समुज्ज्वल विमल हो गई.
आपकी गौरवर्णा वदन-दीप्ति से
चाँदनी साँवली थी, धवल हो गई.
मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी
थी समस्या कठिन पर सरल हो गई.
खूब मिलता कभी था सही आदमी
मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई.
सत्य-शिव और सौंदर्य के स्पर्श से
हर कला मूल्य का योगफल हो गई.
रात अंगार की सेज सोना पड़ा
यह न समझें कि यों ही गज़ल हो गई.
दुष्यन्त कुमार के बाद हिन्दी ग़ज़लों को जिन ग़ज़लकारों ने अपनी मौलिकता को सममिश्रित कर नई ऊंचाइयां दीं, एक नयी ज़मीन प्रदान की, उनमें चन्द्रसेन विराट का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। चन्द्रसेन विराट ने हिन्दी ग़ज़ल को मुक्तिका की स्वतन्त्र संज्ञा दी और मुक्तिका के माध्यम से हिन्दी भाषा के तत्सम तथा गैरप्रचलित शब्दों का प्रयोग कर कथ्य और शैली के नये प्रयोगों को ग़ज़ल में ढाल कर प्रस्तुत किया। ग़ज़ल को मुक्तिका कहने का आग्रह करते हुए उनकी लिखी यह छोटी बहर की ग़ज़ल देखिये -
मुक्तिकाएँ लिखें
दर्द गायें लिखें।।
हम लिखें धूप भी
हम घटाएँ लिखें।।
हास की अश्रु की
सब छटाएँ लिखें।।
बुद्धि की छाँव में
भावनाएँ लिखें।।
सत्य के स्वप्न सी
कल्पनाएँ लिखें।।
आदमी की बड़ी
लघुकथाएँ लिखें।।
सूचनाएँ नहीं
सर्जनाएँ लिखें।।
भव्य भवितव्य की
भूमिकाएँ लिखें।।
पीढ़ियों के लिए
प्रार्थनाएँ लिखें।।
केंद्र में रख मनुज
मुक्तिकाएँ लिखें।।
अली हसन के साथ चंद्रसेन विराट |
पेशे से उच्च पदासीन अभियंता होने के बावजूद चंद्रसेन विराट ने आम आदमी के समकालीन जीवन को पैनी दृष्टि से देखा।
उनका जन्म 3 दिसम्बर 1936 को इन्दौर मध्यप्रदेश में हुआ था । आजीविका की दृष्टि से उन्होंने अभियान्त्रिकी को अपनाया था किन्तु बाल्यावस्था से ही काव्य-कर्म के प्रति उनकी गहरी रुचि बनी रही।
उनकी यह ग़ज़ल हमेशा याद की जायेगी-
जिसकी ऊंची उड़ान होती है।
उसको भारी थकान होती है।
बोलता कम जो देखता ज़्यादा,
आंख उसकी जुबान होती है।
बस हथेली ही हमारी हमको,
धूप में सायबान होती है।
एक बहरे को एक गूंगा दे,
ज़िंदगी वो बयान होती है।
ख़ास पहचान किसी चेहरे की,
चोट वाला निशान होती है।
तीर जाता है दूर तक उसका,
कान तक जो कमान होती है।
जो घनानंद हुआ करता है,
उसकी कोई सुजान होती है।
बाप होता है बहुत बेचारा,
जिसकी बेटी जवान होती है।
खुशबू देती है, एक शायर की,
ज़िंदगी धूपदान होती है।
विराट जी ने गज़लों के साथ ही नवगीत और दोहे भी लिखे। उन्होंने हिन्दी कवि के रूप में हिन्दी साहित्य में अपनी ऐसी विशिष्ट जगह बना ली है कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा।
स्मृतिशेष कवि चंद्रसेन विराट |
मैं आज उन्हीं के मुक्तक से उन्हें श्रद्धांजलि दे रही हूं-
इसी मिट्टी में मिलूं राम करे,
फूल बन-बनके खिलूं राम करे,
स्वर्ग का दो न मुझे लालच तुम,
स्वर्ग मिल जाए, न लूं , राम करे।
आदरणीय विराट जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंउनकी रचनाओं और व्यक्तित्व विश्लेषण स्मृतियों से सजी यह पोस्ट सच्ची भावानात्मक श्रद्धांजलि है वर्षा जी।
सादर।
श्वेता सिन्हा जी , हार्दिक आभार 🙏
हटाएंविराट जी को मेरी भावभीनी श्रधाजली है ....
जवाब देंहटाएंहिंदी गजलों और अनेक रचनाओं के धनी चांदसेन जी को भुलाना आसान न होगा ...
जी हां नासवा जी, विराट जी का हिन्दी ग़ज़ल को दिया गया योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
हटाएंहा
हटाएंबहुत ही उम्दा ग़ज़लें, शब्दों के जादुई असर, नाम के अनुरूप ही विराट योगदान। हमेशा याद आएंगे आप। प्यारे चंद्रसेन जी।🙏🙏
जवाब देंहटाएंAmazing
जवाब देंहटाएं