नई ग़ज़ल/ जब अपना ही छलता है..
गिरीश पंकज
sadbhawanadarpan.blogspot.com से साभार
जब अपना ही छलता है
दिल से लहू टपकता है
खुदगर्जी की ये हद है
अपना हमको खलता है
झूठी दुनिया में कैसे
सच्चा कोई संभलता है
पुण्य यहाँ लगता खोटा
पाप का सिक्का चलता है
जीवन का सच्चा दीया
विश्वासों से जलता है
एक सहारा है सपना
जीवन मेरा कटता है
बेचारा मिहनतवाला
केवल आखें मलता है
भाग्य हमारा जिद्दी है
यह न कभी सुधरता है
जिसमें जितनी चालाकी
उतनी अधिक सफलता है
नन्हीं-सी आँखों में इक
स्वप्न बड़ा-सा पलता है
बच्चे जैसा नादाँ मन
हर पल यहाँ मचलता है
बच्चे जैसा नादाँ मन
हर पल यहाँ मचलता है
ये गरीब का मौसम है
इक जैसा ही रहता है
धीरज रखना तू ''पंकज''
सूरज सुबह निकलता है.
--------------------------------------------------------
ऐसे भी हैं पत्थर लोग
बचपन में ही छूट गई थी छांह पिता की.
याद नहीं, मैंने कब पकड़ी बांह पिता की.
आशीषें, स्नेह मिला जितना भी उनका
सिर माथे रख, मैंने पकड़ी राह पिता की.
मां का सूना माथा, मौन सिसकता अब तक
उनकी पीड़ा में सुनती हूं ‘आह!‘ पिता की.
रिश्ते की मज़बूत कड़ी जाने कब खोई
यद्यपि, सबको थी बेहद परवाह पिता की.
घर की चर्चाओं में सदा बसे रहते हैं
हर कुटुम्ब में होती है इक चाह पिता की.
(2)
छूटा ही क्यों साथ पिता का, पता नहीं.
रूठा कैसे भाग्य हमारा, पता नहीं.
उनका जाना, दुनिया भर के दुख लाया
मां ने कैसे हमें सम्हाला, पता नहीं.
चूड़ी टूटी, सेंदुर छूटा, पल भर में
मां ने कैसे धैर्य निभाया, पता नहीं.
सिर्फ़ पिता को खो कर, खोया इक सम्बल
अब तक जीवन कैसे बीता, पता नहीं.
पिता बिना परिवार अधूरा लगता है
वे होते तो होता कैसा, पता नहीं.
-------------------
--------------------------------------------------------
ऐसे भी हैं पत्थर लोग
पिता – दो ग़ज़लें ...............- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
sharadakshara.blogspot.com से साभार
(1)बचपन में ही छूट गई थी छांह पिता की.
याद नहीं, मैंने कब पकड़ी बांह पिता की.
आशीषें, स्नेह मिला जितना भी उनका
सिर माथे रख, मैंने पकड़ी राह पिता की.
मां का सूना माथा, मौन सिसकता अब तक
उनकी पीड़ा में सुनती हूं ‘आह!‘ पिता की.
रिश्ते की मज़बूत कड़ी जाने कब खोई
यद्यपि, सबको थी बेहद परवाह पिता की.
घर की चर्चाओं में सदा बसे रहते हैं
हर कुटुम्ब में होती है इक चाह पिता की.
(2)
छूटा ही क्यों साथ पिता का, पता नहीं.
रूठा कैसे भाग्य हमारा, पता नहीं.
उनका जाना, दुनिया भर के दुख लाया
मां ने कैसे हमें सम्हाला, पता नहीं.
चूड़ी टूटी, सेंदुर छूटा, पल भर में
मां ने कैसे धैर्य निभाया, पता नहीं.
सिर्फ़ पिता को खो कर, खोया इक सम्बल
अब तक जीवन कैसे बीता, पता नहीं.
पिता बिना परिवार अधूरा लगता है
वे होते तो होता कैसा, पता नहीं.
-------------------
dr. sharad singh ki pita do gazlo ko padkar ankhe nam ho gai. meenakshi swami .indore.
जवाब देंहटाएंजीवन का सच्चा दीया
जवाब देंहटाएंविश्वासों से जलता है ... वाह !
घर की चर्चाओं में सदा बसे रहते हैं
हर कुटुम्ब में होती है इक चाह पिता की.
बाक़ी सब भी .... बहुत अच्छा लगा
बधाई .
पिता पर कही गई शरद जी की दोनों ग़ज़लें मर्मस्पर्शी हैं......साधुवाद.
जवाब देंहटाएंपिता बिना परिवार अधूरा लगता है
जवाब देंहटाएंवे होते तो होता कैसा, पता नहीं.
बहुत अच्छा
exceptional poem on father
जवाब देंहटाएंwelcome on my blog www.utkarsh-meyar.blogspot.in for my ghazals
पिता गये तो पता चला कि , ऐसा भी हो सकता है !
जवाब देंहटाएंहाथ पीठ तक आते सब के ,सिर पे कोई न रखता है
गोद में पापा की आ लातें ,मारी मुंह पे होंगी तो भी ,
चूमें होंगें पैर , मुझे ये , पैर देख के लगता है !
गाई कभी ना लोरी लेकिन , मीठा जो स्पर्श किया ,
आज तलक उस छुअन को मेरा ,सपना लेकिन जगता है !
बिन तेरे हम बिखरे से हैं , पापा फिर से आओ ना ,
मैं तो अब तक भी बच्चा हूँ , हर कोई ही ठगता है !http://heyeshwar.blogspot.com/2012/08/he...
bahut achchhi ghazal hai, sharadji.pita ka arth unke jaane ke baad hi samajh men aata hai.mujhe achchha lagega yadi aap meri ghazlon par bhi drishti dalen.
जवाब देंहटाएंbbmm
जवाब देंहटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
जवाब देंहटाएं