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मंगलवार, अक्तूबर 23, 2018

ग़ज़ल ... नदी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

रेत पानी बुनी एक दरी है नदी
आजकल तो लबालब भरी है नदी

पतझड़ों की उदासी, हंसी फूल की
मौसमी सिलसिलों से घिरी है नदी

आग से बिजलियों से इसे ख़ौफ़ क्या
प्यार जैसी हमेशा खरी है नदी

प्यास सबकी अलग, चाह सबकी जुदा
सबकी अपनी अलग दूसरी है नदी

बंधनों में बंधी घाट से घाट तक
मुस्कुराती सदा बांवरी है नदी

हर लहर पीर बो कर गई देह में
वक़्त की आरियों से चिरी है नदी

धूप में हर लहर सुनहरी सी दिखे
साथ "वर्षा" रहे तो हरी है नदी


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