Dr. Varsha Singh |
- हवा से भीगते हुए (1990)
- आँधियों के दौर में (1993) पुरस्कृत
- कुछ तो बोलो (1998)
- किसे नहीं मालूम (2004) पुरस्कृत
- इस समय हम (2011)
ब्लॉग लेखन में भी हरेराम समीप निरंतरता बनाए हुए हैं उनके ब्लॉग का पता है
http://hareramsameep.blogspot.com/?m=1
सम्पर्क हेतु
ईमेल: sameep395@gmail.com
- आँधियों के दौर में (1993) पुरस्कृत
- कुछ तो बोलो (1998)
- किसे नहीं मालूम (2004) पुरस्कृत
- इस समय हम (2011)
ब्लॉग लेखन में भी हरेराम समीप निरंतरता बनाए हुए हैं उनके ब्लॉग का पता है
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हरेराम समीप ने विविध भारतीय भाषाओं की हिन्दी कथा पत्रिका 'कथा भाषा' त्रैमासिक का 1987 से 1994 तक सम्पादन किया जिसके उनके कार्यकाल में अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए।
'दैनिक देशबन्धु' जबलपुर तथा 'नर्मदाज्योति दैनिक' जबलपुर में भी सम्पादन कार्य किया । उनके द्वारा 'तुलसी रंगत' तथा 'अभिव्यक्ति' त्रैमासिक में सम्पादन सहयोग जारी है. उन्होंने
'निष्पक्ष भारती' मासिक के ग़ज़ल अंक और 'मसि कागद' त्रैमासिक के दोहा अंक का संपादन 2000 और 2003 में किया।
"समकालीन महिला ग़ज़लकार" संग्रह का कुशल सम्पादन भी हरेराम समीप ने किया है। जिसमें मेरी यानी डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों को भी शामिल किया गया है।
Samkaleen Mahila Rachanakar |
स्याह रातों में ये जुगनू की ज़िया है तो सही
दिल के बहलाने को इक लोकसभा है तो सही।
देखकर रेल के डिब्बे बुहारता बचपन
लोग कह देते हैं पाँवों पे खड़ा है तो सही।
जब भी मिलता है वो झुँझला के बात करता है
कुछ न कुछ उसको जमाने से गिला है तो सही।
दिल के बहलाने को इक लोकसभा है तो सही।
देखकर रेल के डिब्बे बुहारता बचपन
लोग कह देते हैं पाँवों पे खड़ा है तो सही।
जब भी मिलता है वो झुँझला के बात करता है
कुछ न कुछ उसको जमाने से गिला है तो सही।
हरेराम समीप पुस्तक मेला में |
ये ग़ज़लें उनके अनुभवों की थाती हैं। जीवन और उसके अनुभव से जुड़ी ये ग़ज़लें और रुचिकर होने के साथ ही दिलो-दिमाग़ पर गहरी छाप छोड़ जाने वाली हैं।
एक ही मंजिल है उनकी एक ही है रास्ता
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे
मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे।
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे
मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे।
कथ्य और भाव दोनों दृष्टियों से हरेराम समीप की ग़ज़लें पठनीय हैं, गुनगुनाने योग्य हैं।
दावानल सोया है कोई जहाँ एक चिंगारी में
ठीक वहीं पर हवा व्यस्त है तूफॉँ की तैयारी में
जिद्दी बच्चे जैसा मौसम समझे क्या समझाये क्या
जाने क्या क्या बोल रहा है हिलकारी सिसकारी में
सागर के भीतर कि लहरें अक्सर बतला देती हैं
कुंठा का रस्ता खुलता है हिंसा कि औसरी में
वो लौटी है सूखी आंखे तार तार दामन लेकर
जाने उसने क्या देखा था सपनों के व्यापारी में
जब से यहाँ नगर में आया आकार ऐसा उलझा हूँ
भूल गया हूँ घर ही अपना घर कि जिम्मेदारी में
अपने छोटे होते कपड़े बच्चों को पहनता हूँ
तहकर के रक्खे जो मैंने आँखों कि अलमारी में
तेरहवी के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च किए हैं अम्मा की बीमारी में
इससे बेहतर काम नहीं है इस अकाल के मौसम में
आओ मिलकर खुशबू खोजें काँटों वाली क्यारी में
हरियाणा साहित्य अकादमी समेत अनेक पुरस्कार एवं सम्मान से हरेराम समीप को सम्मानित किया जा चुका है।
ठीक वहीं पर हवा व्यस्त है तूफॉँ की तैयारी में
जिद्दी बच्चे जैसा मौसम समझे क्या समझाये क्या
जाने क्या क्या बोल रहा है हिलकारी सिसकारी में
सागर के भीतर कि लहरें अक्सर बतला देती हैं
कुंठा का रस्ता खुलता है हिंसा कि औसरी में
वो लौटी है सूखी आंखे तार तार दामन लेकर
जाने उसने क्या देखा था सपनों के व्यापारी में
जब से यहाँ नगर में आया आकार ऐसा उलझा हूँ
भूल गया हूँ घर ही अपना घर कि जिम्मेदारी में
अपने छोटे होते कपड़े बच्चों को पहनता हूँ
तहकर के रक्खे जो मैंने आँखों कि अलमारी में
तेरहवी के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च किए हैं अम्मा की बीमारी में
इससे बेहतर काम नहीं है इस अकाल के मौसम में
आओ मिलकर खुशबू खोजें काँटों वाली क्यारी में
हरियाणा साहित्य अकादमी समेत अनेक पुरस्कार एवं सम्मान से हरेराम समीप को सम्मानित किया जा चुका है।
पुरस्कार प्राप्त करते हरीराम समीप |
अकादमी का हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंश्री ' समीप' जी जब लिखते हैं, लिखते जिम्मेदारी में,
जवाब देंहटाएंउन्हें पता है कितनी मिर्चें ,नमक पड़े तरकारी में।
चिंगारी के दम से वाकिफ, अम्मा के बच्चों का हाल,
कुंठाओं के मन की कुंठा, वाँची कविता प्यारी में।
बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं के अभाव ने एक जानदार रचनाकार से परिचित नहीं होने दिया।