Dr. Varsha Singh |
"क्या मुश्किल है " में संग्रहीत यह ग़ज़ल देखें -
लफ़्ज़ की चाशनी में घुलेगी नहीं ।
बेरुख़ी आपकी अब छुपेगी नहीं ।
पंख कतरे हैं तुमने मेरे प्यार के ।
बेपरों की ये चिड़िया उड़ेगी नहीं ।
मज़हबी मेल लाज़िम है इस मुल्क़ में ।
बात बिगड़ी अगर तो बनेगी नहीं ।
एक लड़की जो तन कर खड़ी हो गई ।
सामने ज़ालिमों के झुकेगी नहीं ।
ज़िन्दगी की लकीरें मिटेंगी मगर ।
एक तस्वीर दिल से मिटेगी नहीं ।
वक़्त गुज़रेगा , हम भी गुज़र जायेंगे ।
उम्र की ये नदी फिर बहेगी नहीं ।
गाँव कल फिर नये और बस जायेंगे ।
दिल की बस्ती जो उजड़ी बसेगी नहीं ।
बेरुख़ी आपकी अब छुपेगी नहीं ।
पंख कतरे हैं तुमने मेरे प्यार के ।
बेपरों की ये चिड़िया उड़ेगी नहीं ।
मज़हबी मेल लाज़िम है इस मुल्क़ में ।
बात बिगड़ी अगर तो बनेगी नहीं ।
एक लड़की जो तन कर खड़ी हो गई ।
सामने ज़ालिमों के झुकेगी नहीं ।
ज़िन्दगी की लकीरें मिटेंगी मगर ।
एक तस्वीर दिल से मिटेगी नहीं ।
वक़्त गुज़रेगा , हम भी गुज़र जायेंगे ।
उम्र की ये नदी फिर बहेगी नहीं ।
गाँव कल फिर नये और बस जायेंगे ।
दिल की बस्ती जो उजड़ी बसेगी नहीं ।
कमलेश श्रीवास्तव फेसबुक पर निरंतर सक्रियता बनाये हुए हैं। उनकी फेसबुक लिंक पर जा कर उनकी ग़ज़लें पढ़ी जा सकती हैं। https://www.facebook.com/kamlesh.shrivastava.585
वे अपनी ग़ज़लों में जहां आशावादिता का हाथ थामे नज़र आते हैं वहीं वे सारी दुनिया की ख़ुशहाली के लिए हाथ उठाकर दुआ करते नज़र आते हैं। कमलेश कहते हैं -
ज़िन्दगी की शाम कुछ निर्मल बना दे ।
या ख़ुदा अब रूह को संदल बना दे ।
ये ग़मों की धूप ढलती ही नहीं है ।
अब मेरे एहसास को बादल बना दे ।
ज़िन्दगी का रक़्स फीका है अभी तक ।
अब किसी के प्यार को पायल बना दे ।
तू अगर चाहे तो क्या मुमकिन नहीं है ।
अश्क़ मेरे चूम , गंगाजल बना दे ।
छाँव की बेहद ज़रूरत है मुझे अब ।
इस दुपहरी को ही तू पीपल बना दे ।
मैं ये शहरी ढंग कब तक जी सकूँगा ।
तू किसी वन की मुझे कोयल बना दे ।
ख़ुद शजर के हाथ में भी ये नहीं के ।
ख़ुश्क पत्ते को नई कोंपल बना दे ।
Kamlesh Shrivastava |
अश्क़ों से अभिषेक किया है पत्थर की मूरत का ।
क्या अंदाज़ लगाओगे तुम लोग मेरी हालत का ।
ख़ुशियों की तहरीरों में भी ग़म के ही किस्से हैं ।
पन्ना पन्ना पढ़ डाला मैंने अपनी किस्मत का ।
तिल तिल कर मरना किसको कहते हैं मुझसे पूछो ।
हर दिन मुरझाता है कोई फूल मेरी चाहत का ।
जिस दिन तुम मेरे काँधे पर सर रख कर सोई थीं ।
उस दिन मैंने देख लिया था इक कोना जन्नत का ।
सच बोलूं तो मैंने अपने इस जीवन में यारो ।
सिर्फ़ इबादत में काटा है हर लम्हा फ़ुर्सत का ।
रसायन शास्त्र में एम.एससी. की उपाधि प्राप्त कमलेश श्रीवास्तव पिछोर, म.प्र. में म.प्र. वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन में ज़िला प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहते हुए बेहतरीन ग़ज़लें लिख कर साहित्य सेवा कार्य बख़ूबी कर रहे हैं।
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २९ अक्टूबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं आप..... बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित साधुवाद 🙏
हटाएंबहुत ही लाजवाब ग़ज़लें हैं कमलेश जी की ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका परिचय के लिए ...
हार्दिक धन्यवाद दिगम्बर नासवा जी 🙏
हटाएंबहुत बहुत आभार शिवम मिश्रा जी 🙏
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