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रविवार, नवंबर 25, 2018

ग़ज़ल ... और कब तक अंधकूपी रात दिन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

वर्जनाओं से बिखरते जा रहे
दर्पणी सपने दरकते जा रहे

जो अप्रस्तुत है उसी की चाह में
रिक्त सारे पंख झड़ते जा रहे

प्यार का मधुबन न उग पाया यहां
कसमसाते छंद ढलते जा रहे

कष्ट की काई जमीं हर शब्द पर
अर्थ के प्रतिबिंब मिटते जा रहे

चुक रहे संदर्भ रिश्तों के सभी
हम स्वयं से आज कटते जा रहे

लीक के अभ्यस्त पांवों के तले
मुक्ति के अनुबंध घिसते जा रहे

बन न पाया मन कभी निर्वात जल
हम हिलोरों में हुमगते जा रहे

और कब तक अंधकूपी रात दिन
पूछते पल-छिन गुज़रते जा रहे

जागरण “वर्षा’’ ज़रूरी हो गया
मूल्य जीवन के बदलते जा रहे

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