वर्जनाओं से बिखरते जा रहे
दर्पणी सपने दरकते जा रहे
जो अप्रस्तुत है उसी की चाह में
रिक्त सारे पंख झड़ते जा रहे
प्यार का मधुबन न उग पाया यहां
कसमसाते छंद ढलते जा रहे
कष्ट की काई जमीं हर शब्द पर
अर्थ के प्रतिबिंब मिटते जा रहे
चुक रहे संदर्भ रिश्तों के सभी
हम स्वयं से आज कटते जा रहे
लीक के अभ्यस्त पांवों के तले
मुक्ति के अनुबंध घिसते जा रहे
बन न पाया मन कभी निर्वात जल
हम हिलोरों में हुमगते जा रहे
और कब तक अंधकूपी रात दिन
पूछते पल-छिन गुज़रते जा रहे
जागरण “वर्षा’’ ज़रूरी हो गया
मूल्य जीवन के बदलते जा रहे
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