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रविवार, जुलाई 19, 2020

और तुम ख़ामोश हो | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, आज एक और ग़ज़ल मेरे संग्रह "हम जहां पर हैं" से....
   ... और तुम ख़ामोश हो !
                        - डॉ. वर्षा सिंह             
हो रही आहत मनुजता, और तुम ख़ामोश हो।
पैंतरों से  लैस  प्रभुता, और तुम  ख़ामोश हो।

वृद्ध, रोगी हैं, अपाहिज कोशिशों के काफ़िले,
दर्द का सैलाब उठता, और तुम खामोश हो ।

खौलते जल में गिरी हो जिस तरह मछली कोई,
ख़्वाब आंखों में तड़पता, और तुम ख़ामोश हो।

बुद्धिजीवी हो रहे असमर्थ, कैसे क्या हुआ !
प्रश्न का उत्तर न मिलता, और तुम ख़ामोश हो।

वायदे सारे नपुंसक, राहतें जन्मीं नहीं,
पैरवी खुद साक्ष्य करता, और तुम ख़ामोश हो।

लाल, पीली, बैंगनी  झंडी  उठाए  हाथ में,
दिनदहाड़े झूठ छलता, और तुम ख़ामोश हो।

हो रही 'वर्षा', घिरी है  यातनाओं की घटा,
जल नदी का है उफनता, और तुम ख़ामोश हो।
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