Dr. Varsha Singh |
प्रिय ब्लॉग पाठकों मेरे ग़ज़ल संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत एक ग़ज़ल प्रस्तुत है....
ग़ज़ल
इक चांद है इस खत में
- डॉ. वर्षा सिंह
भूली हुई गजलों को जब सांझ कोई गाए।
मन दौड़ के बीते दिन मुट्ठी में उठा लाए।
खिड़की में हरे शीशे लगवा भी लिए तो क्या !
जंगल तो नहीं आकर बाहों में समा पाए।
संकेत के झुरमुट में तुम झांक के देखो तो,
संवाद कोई खिलता शायद तुम्हें दिख जाए।
लावे की नदी बनकर चिंताएं उफनती हैं,
जलते हैं गुलाबी पल दिखते ही नहीं साए।
इक चांद है इस ख़त में, तुम पढ़ के बताना ये,
तुमको भी उजालों के, सपने तो नहीं आए।
हर सांस में आस बंधी, है सुख के संदेशे की,
कोई तो कभी आए और हाल सुना जाए।
"वर्षा" का हृदय निश्छल, ये हाल है चाहत का,
सागर भी भला लागे, पर्वत भी उसे भाए।
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इक चांद है इस ख़त में, तुम पढ़ के बताना ये,
जवाब देंहटाएंतुमको भी उजालों के, सपने तो नहीं आए।
बहुत खूब !! अत्यंत सुन्दर ग़ज़ल !
हार्दिक धन्यवाद मीना जी 🙏
हटाएंहार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद ओंकार जी 🙏
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