Dr. Varsha Singh |
मौसम आंसू बोता है
बिछुड़ा पत्ता डाली से
चट्टानों पर सोता है
उम्मीदों का इक झरना
मन की देह भिगोता है
कुछ पाने की चाहत में
सारा जीवन खोता है
रातों के सन्नाटे में
यादों का शिशु रोता है
मजबूरी का तीखापन
रह-रह जिया करोता है
समय पुस्तकों के भीतर
सूखे फूल संजोता है
दुख ही घनीभूत होकर
मन की पीड़ा धोता है
नियतिचक्र चुपके चुपके
"वर्षा" दर्द पिरोता है
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