Dr. Varsha Singh |
लूटपाट की, हत्याओं की, डाकू की, बटमारोंं की
घर दफ्तर के बीच जिंदगी यहां बंधी है खूंटे से
शहरों से बेहतर लगती है बस्ती अब बंजारों की
कुछ तो खामी है नियमों में, घोटाला कानूनों में
गली-गली में भीड़ लगी है पढ़े-लिखे बेकारों की
यहां-वहां आतंक हर तरफ, शांति व्यंग्य सी लगती है
खूनी छाया मंडराती है पल बंदूकों-तलवारों की
सुबह शाम हर पहर एक सा, परिवर्तन के चिह्न नहीं
नित्य कथाएं भिन्न नहीं है सोम, शुक्र, रविवारों की
गर्दिश के ये दिन हैं भैया, फल भविष्य का क्या कहिए
एक दशा है नक्षत्रों की, तेरे-मेरे तारों की
अमरबेल से चाटुकारिता फैल रही है दिन दूनी
जिनको फन का ज्ञान नहीं है कद्र उन्हीं फनकारों की
आज भूमि भारत की व्याकुल, रक्तपात की बाढ़ों से
आवश्यकता पुनः यहां है महापुरुष अवतारों की
शायद कोई अपना भी हो, नदिया के उस पार कहीं
बाट जोहती कब से किश्ती, मांझी की, पतवारों की
कांटो की बन आई "वर्षा" , बगिया भरी बबूलों से
खिलने से पहले मुरझाती हैं कलियां कचनारों की
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