Dr. Varsha Singh |
दुख और सुख जीवन के दो पहलू हैं। सुख में उल्लासित हृदय झूम उठता है आंखों में ख़ुशी के आंसू भर जाते हैं तो दुख में हृदय व्यथित हो उठता है, ग़म के आंसू आंखों से छलक पड़ते हैं। …. तो आज मैं चर्चा करना चाहती हूं दुख के आंसुओं, अश्कों की शायरी पर… हिन्दी और उर्दू में की गई शायरी की एक झलक….
क़तील शिफ़ाई |
मिल कर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम
इक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम
आँसू झलक झलक के सताएँगे रात भर
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम
जब दूरियों की आग दिलों को जलाएगी
जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम
इक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम
आँसू झलक झलक के सताएँगे रात भर
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम
जब दूरियों की आग दिलों को जलाएगी
जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम
- क़तील शिफ़ाई
आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ
- गुलज़ार
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ
- गुलज़ार
उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
घने धुएँ में फ़रिश्ते भी आँख मलते हैं
तमाम रात खुजूरों के पेड़ जुलते हैं
मैं शाहराह नहीं रास्ते का पत्थर हूँ
यहाँ सवार भी पैदल उतर के चलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
घने धुएँ में फ़रिश्ते भी आँख मलते हैं
तमाम रात खुजूरों के पेड़ जुलते हैं
मैं शाहराह नहीं रास्ते का पत्थर हूँ
यहाँ सवार भी पैदल उतर के चलते हैं
- बशीर बद्र
त्रिलोचन |
वह कल, कब का बीत चुका है--आँखें मल के
ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,
पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;
धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है ।
क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके ।
ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,
पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;
धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है ।
क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके ।
- त्रिलोचन
सोम ठाकुर |
कौन–सा मन हो चला गमगीन जिससे सिसकियां भरती दिशाएं
आंसुओं का गीत गाना चाहती हैं नीर से बोझिल घटाएं
आंसुओं का गीत गाना चाहती हैं नीर से बोझिल घटाएं
- सोम ठाकुर
सिर्फ़ चेहरे की उदासी से भर आए आंसू फ़राज़
दिल का आलम तो अभी आपने देखा ही नहीं
-अहमद फ़राज़
दिल का आलम तो अभी आपने देखा ही नहीं
-अहमद फ़राज़
फ़िर आज अश्क़ से आंखों में क्यूं हैं आए हुए
गुज़र गया है ज़माना तुझे भुलाए हुए
- फ़िराक गोरखपुरी
गुज़र गया है ज़माना तुझे भुलाए हुए
- फ़िराक गोरखपुरी
गोपाल दास नीरज |
ख़ुद ही हल हो गई समस्या,
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या,
- गोपाल दास नीरज
यह उड़ी उड़ी सी रंगत, यह खिले खिले से आंसू
तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फ़साना
-दाग़ देहलवी
तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फ़साना
-दाग़ देहलवी
अश्क आंखों में कब नहीं आता,
लहू आता है जब नहीं आता
- मीर तकी मीर
पर इसके लिए यातना क्या-क्या न सही है
भटका कहाँ-कहाँ अमन-चैन के लिए
थक-थक के मगर घर की वही राह गही है
तुम लाख छिपाओ रहबरी आवाज़ में मगर
झुलसी हुई बस्ती ने कहा— ये तो वही है
आँगन में सियासत की हँसी बनती रही मीत
अश्कों से अदब के वो बार-बार ढही है
- रामदरश मिश्र
भीड़ में दुनिया की आकर सारे आंसू खो गए हैं
देखिये उनसे कहाँ आकर हमारे ग़म मिलेंगे
मेरी मुठ्ठी में सिसकते एक जुग्नू ने कहा था
देखना आगे तुम्हें सारे दिए मद्धम मिलेंगे
देखिये उनसे कहाँ आकर हमारे ग़म मिलेंगे
मेरी मुठ्ठी में सिसकते एक जुग्नू ने कहा था
देखना आगे तुम्हें सारे दिए मद्धम मिलेंगे
- अमीर ईमाम
- राजेश रेड्डी
रोक लेता हूँ आँसू, मगर सिसकियों पर मिरा बस नहीं
-राजेश रेड्डी
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह |
हर अनजाने को आगे बढ़, गले लगाना मुश्क़िल है।
सबको रुतबे से मतलब है, मतलब है पोजीशन से
ऐसे लोगों से, या रब्बा! साथ निभाना मुश्क़िल है।
शाम ढली तो मेरी आंखों से आंसू की धार बही
अच्छा है, कोई न पूछे, वज़ह बताना मुश्किल है।
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
- ख़लीलुर्रहमान आज़मी
और अंत में कृपया मेरी यानी डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों में आंसू की मौजूदगी पर भी एक नज़र डालें ......
कट रहे हैं जंगलों के हाशिए
चांदनी ने रात भर आंसू पिए
अब नहीं वे डालियां जिन पर कभी
बुलबुलों ने प्यार के दो पल जिए
किस तरह उजड़ी हुई सी भूमि पर
रख सकेंगे उत्सवों वाले दिए
- डॉ. वर्षा सिंह
आंसू बन कर छलके अम्बर के सपने
कर्जे की गठरी से जिनकी कमर झुकी
कृषकों को आते हैं ठोकर के सपने
कंकरीट के जंगल वाले शहरों में
धूलधूसरित आंगन, छप्पर के सपने
- डॉ. वर्षा सिंह
जब-जब खुदे पहाड़ यहां पर हरदम चुहिया निकली है
यूं तो हर मुद्दे पर पूछा - “ कहो मुसद्दी ! कैसे हो?" बोल न पाया लेकिन कुछ भी, मुंह पर रख दी उंगली है
‘बुधिया’ के मरने पर निकले ‘घीसू’- ‘माधव’ के आंसू
वे आंसू भी नकली ही थे, ये आंसू भी नकली है
कोई भी आवाज़ दबाना, अब इतना आसान नहीं
चैनल की चिल्लम्पों करती, चींख-चींख कर चुगली है
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