ग़ज़ल
कहां आ गए
- डॉ. वर्षा सिंह
हम कहां से चले थे कहां आ गए
सोचिए तो जरा दर्द क्यों भा गए
बूंद बरसी न फूलों लदी डालियां
फूल खिलने से पहले ही मुरझा गए
लोग फसलें उगाने चले रेत में
खेत में तो बबूलों के दिन आ गए
उनसे उम्मीद थी कुछ कहेंगे नया
बात मेरी वही आज दोहरा गए
आंधियां दहशतों की चलीं इस कदर
त्रास के मेघ काले घने छा गए
अब कहां है वो 'चाणक्य' जो ज्ञान दे
'नंद' विजयी हुआ, मात हम खा गए
पूजिए पूजना है जिसे आपको
हम तो "वर्षा" ज़माने से उकता गए