शुक्रवार, नवंबर 27, 2020

कहां आ गए | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

ग़ज़ल


कहां आ गए

- डॉ. वर्षा सिंह


हम कहां से चले थे कहां आ गए 

सोचिए तो जरा दर्द क्यों भा गए 


बूंद बरसी न फूलों लदी डालियां

फूल खिलने से पहले ही मुरझा गए 


लोग फसलें उगाने चले रेत में 

खेत में तो बबूलों के दिन आ गए


उनसे उम्मीद थी कुछ कहेंगे नया 

बात मेरी वही आज दोहरा गए


आंधियां दहशतों की चलीं इस कदर 

त्रास के मेघ काले घने छा गए 


अब कहां है वो 'चाणक्य' जो ज्ञान दे

'नंद' विजयी हुआ, मात हम खा गए


पूजिए पूजना है जिसे आपको 

हम तो "वर्षा" ज़माने से उकता गए


#ग़ज़लवर्षा #ग़ज़ल #कहां_आ_गए


शुक्रवार, नवंबर 20, 2020

अपना दोष यही | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

अपना दोष यही

         - डॉ. वर्षा सिंह

सच की मूरत ढाली, अपना दोष यही
गढ़ी न सूरत जाली, अपना दोष यही

न्यायालय से न्याय न वर्षों मिल पाया
जेबें अपनी खाली, अपना दोष यही

हंसी-ठिठोली के मंचों से दूर रही
ग़ज़ल व्यथाओं वाली, अपना दोष यही

कैसे दिन को रात कहें, रातों को दिन
दुनिया देखी-भाली, अपना दोष यही

एक हाथ से कभी किसी भी अवसर पर
बजा ना पाए ताली, अपना दोष यही

युग के रंजीत परिधानों से दूर सदा
ओढ़ी "कमली-काली" अपना दोष यही

खर-पतवार भरे खेतों की बाहों में
ढूंढी जौ की बाली, अपना दोष यही

सपनों की भी मृगमरीचिका क्या कहिए
आयु व्यर्थ खो डाली, अपना दोष यही

अपनी विपदाएं ही "वर्षा" क्या कम थीं
जग की विपदा पाली, अपना दोष यही

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#ग़ज़ल #दोष #कमली #ग़ज़लवर्षा #मृृृगमरीचिका

गुरुवार, नवंबर 12, 2020

दीप का त्यौहार है दीपावली | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

        दीप का त्यौहार है दीपावली
                              - डॉ. वर्षा सिंह
दीप का त्यौहार है दीपावली
शीत का श्रृंगार है दीपावली

रह न पाए मैल मन में रंच भर
ज्योति की जलधार है दीपावली

मावसी पीड़ा मिटाने आ गई
हर्ष की झंकार है दीपावली

रह न जाए स्वप्न कोई भी अधूरा
कुमकुमी उपहार है दीपावली

दूर हमसे हो बुराई की डगर
शुभ-पलों का द्वार है दीपावली

आपसी मतभेद सारे भूलिए
प्रीत की मनुहार है दीपावली

हो रही आलोक "वर्षा" हर तरफ़
तिमिर का प्रतिकार है दीपावली
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#दीपावली #ग़ज़ल #ज्योति

बुधवार, नवंबर 04, 2020

मत कहो "वर्षा" कहानी दूर दिल्ली की | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह


ग़ज़ल

मत कहो "वर्षा" कहानी दूर दिल्ली की

                 - डॉ. वर्षा सिंह


गांव के भीतर वही, जो गांव के बाहर

आजकल हर ओर ठोकर दे रहे पाथर


क्यारियां सूखी पड़ी हैं नीर का संकट

अब नहीं बिछती हरीली घास की चादर


कौड़ियों के मोल बिकता आदमी का श्रम

आदमी ज्यों हो गया है फालतू डांगर


झूठ-मक्कारी शहर की वायु में शामिल

गुम गया शीतल-मधुर सुख-चैन का चांवर


हाथ में जिनके खिलौनों की जगह घूरा

बचपने में ही थके बच्चे हुए जर्जर


एक्सरे की हर रपट में फेफड़े पढ़ते

छिद्र वाले मौत के काले बड़े आखर


चाय के दो घूंट आतों की जलन थामें

दो निवाले रोटियों के ढूंढते दिन भर


भूमि के पट्टे छिपाए रंज़िशों के मूल

ज़िन्दगी के नाम लिखते कचहरी अक्सर


मत कहो "वर्षा" कहानी दूर दिल्ली की

था जहां कल तक वहां है आज भी सागर

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