ग़ज़ल
मत कहो "वर्षा" कहानी दूर दिल्ली की
- डॉ. वर्षा सिंह
गांव के भीतर वही, जो गांव के बाहर
आजकल हर ओर ठोकर दे रहे पाथर
क्यारियां सूखी पड़ी हैं नीर का संकट
अब नहीं बिछती हरीली घास की चादर
कौड़ियों के मोल बिकता आदमी का श्रम
आदमी ज्यों हो गया है फालतू डांगर
झूठ-मक्कारी शहर की वायु में शामिल
गुम गया शीतल-मधुर सुख-चैन का चांवर
हाथ में जिनके खिलौनों की जगह घूरा
बचपने में ही थके बच्चे हुए जर्जर
एक्सरे की हर रपट में फेफड़े पढ़ते
छिद्र वाले मौत के काले बड़े आखर
चाय के दो घूंट आतों की जलन थामें
दो निवाले रोटियों के ढूंढते दिन भर
भूमि के पट्टे छिपाए रंज़िशों के मूल
ज़िन्दगी के नाम लिखते कचहरी अक्सर
मत कहो "वर्षा" कहानी दूर दिल्ली की
था जहां कल तक वहां है आज भी सागर
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#ग़ज़ल #सागर #दिल्ली #कचहरी #ज़िन्दगी
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 06-11-2020) को "अंत:करण का आयतन संक्षिप्त है " (चर्चा अंक- 3877 ) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
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"मीना भारद्वाज"
प्रिय मीना भारद्वाज जी,
हटाएंअत्यंत प्रसन्नता हुई यह जान कर कि आपने मेरी इस पोस्ट का चयन चर्चा हेतु किया है।
बहुत आभारी. हूं मैं आपकी इस सदाशयता के प्रति 🙏
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत अच्छी ग़ज़ल रची है वर्षा जी आपने । अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र माथुर जी,
हटाएंआपको मेरी ग़ज़ल पसन्द आई यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है।
हार्दिक धन्यवाद अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने हेतु 🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
प्रिय श्वेता सिन्हा जी,
जवाब देंहटाएंआपके प्रति बहुत आभार... आपने मेरी ग़ज़ल का चयन पांच लिंकों में सम्मिलित करने हेतु किया है, यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है।
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत सुंदर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद प्रिय अनुराधा जी 🙏💐🙏
हटाएंसस्नेह
डॉ. वर्षा सिंह
वाह! बेहतरीन सृजन सराहना से परे आदरणीय दी।
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक धन्यवाद अनीता सैनी जी
हटाएं🙏🍁🙏
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत बढ़िया। लाजवाब।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद 🙏
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