ग़ज़ल
कहां आ गए
- डॉ. वर्षा सिंह
हम कहां से चले थे कहां आ गए
सोचिए तो जरा दर्द क्यों भा गए
बूंद बरसी न फूलों लदी डालियां
फूल खिलने से पहले ही मुरझा गए
लोग फसलें उगाने चले रेत में
खेत में तो बबूलों के दिन आ गए
उनसे उम्मीद थी कुछ कहेंगे नया
बात मेरी वही आज दोहरा गए
आंधियां दहशतों की चलीं इस कदर
त्रास के मेघ काले घने छा गए
अब कहां है वो 'चाणक्य' जो ज्ञान दे
'नंद' विजयी हुआ, मात हम खा गए
पूजिए पूजना है जिसे आपको
हम तो "वर्षा" ज़माने से उकता गए
वाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद जोशी जी 🙏
हटाएंपूजिए पूजना है जिसे आपको
जवाब देंहटाएंहम तो "वर्षा" जमाने से उकता गए
अन्तस् को छूती गहन अभिव्यक्ति । लाज़वाब ग़ज़ल ।
बहुत धन्यवाद मीना जी 🙏
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (29-11-2020) को "असम्भव कुछ भी नहीं" (चर्चा अंक-3900) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक धन्यवाद आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏
हटाएंबहुत खूब वर्षा जी !
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद माथुर जी 🙏
हटाएं
जवाब देंहटाएंमंत्रमुग्ध करती रचना - - नमन सह।
हार्दिक धन्यवाद सान्याल जी 🙏
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब गजल...।
उनसे उम्मीद थी कुछ कहेंगे नया
बात मेरी वही आज दोहरा गए
बहुत ही सुन्दर।
दिली शुक्रिया सुधा जी 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आलोक सिन्हा जी 🙏
हटाएंबहुत धन्यवाद ओंकार जी 🙏
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