सोमवार, अक्तूबर 29, 2018

फ़नकारी बहुत है महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों में - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
दुष्यंत कुमार सम्मान प्राप्त डॉ. महेंद्र अग्रवाल ग़ज़ल की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। उनका ग़ज़ल संग्रह ‘फ़नकारी सा कुछ तो है’ गजलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। शायरी वही है जो दिलों को छू जाए शायरी वह भी है जो विचारों को झकझोर जाए।

21अप्रैल 1964 को जन्मे डॉ. महेंद्र अग्रवाल प्राणी शास्त्र में एम.एससी. डिग्री प्राप्त होने के साथ ही एम ए हिंदी साहित्य, एल.एल.बी. और पीएच.डी. है आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से लगातार उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। “नई ग़ज़ल स्वरूप एवं संवेदना” उनका शोध प्रबंध है। दुष्यंत कुमार सम्मान के साथ ही देवकीनंदन माहेश्वरी सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य अलंकरण, गजल गौरव सम्मान आदि प्रतिष्ठित अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ. महेंद्र अग्रवाल “नई ग़ज़ल” पत्रिका के संपादन का कार्य वर्षों से देखते आ रहे हैं। यूं तो उन्होंने आलोचना और व्यंग्य की कई किताबें लिखी हैं , एक शायर के रूप में उनकी ग़ज़लों के अनेक संग्रह प्रकाशित और लोकप्रिय हुए हैं । जिनमें प्रमुख हैं - पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग, शोख़ मंज़र ले गया, ये तय नहीं था, बादलों को छूना है, चांदनी से मिलना है।
Dr. Mahendra Agrawal

गज़़ल के लीजेंड शायर, व्यंग्यकार एवं नई गज़़ल पत्रिका के सम्पादक डॉ.महेन्द्र अग्रवाल की सत्रहवीं किताब के रूप में प्रकाशित उनका ताज़ा ग़़ज़ल संग्रह “फ़नकारी सा कुछ तो है“ बहुत ही नायाब गजलों का संग्रह है। इस संग्रह में संग्रहीत यह ग़ज़ल देखें -

कैसे बताएं फूल सा कब तक खिला रहा
देखा है कभी जिसने बदन बोलता हुआ

अपने ही जैसे शख्स़ की उसको तलाश थी
बस्ती में पागलों की तरह खोजता फिरा

इक उम्र तक किसी से कभी बात भी न की
हंसकर मिला जो कोई वहीं चींखने लगा

घर में भी उम्र भर मुझे घर ढूंढना पड़ा
इक उम्र हुई अब तो बदन टूटने लगा

डॉ. महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों में भाषाई बंधनों से मुक्त हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं को बख़ूबी गूंथ कर कहे गये उनके मिसरे अभिव्यक्ति का सहज माध्यम बन कर इन्हें पढ़ने- सुनने वालों के लिए आसानी से ग्राह्य हो कर शायरी की दुनिया की सैर कराते हैं। वे साधारण बोलचाल की उर्दू के साथ हिन्दी मिश्रित भाषा में ग़ज़लें कह रहे हैं । यथार्थ का चित्रण उनकी ग़ज़लों में सहज ही दिखाई देता है, उदाहरण देखें -

अपनी ही शख्स़ियत से बहुत दूर हो गया
दुनिया के साथ चलने का दस्तूर हो गया

तूफां में अपना हाथ बढ़ाता भी किस तरफ?
पगड़ी बचाए रखने को मज़बूर हो गया

ऊंचाइयों से जोश में मारी छलांग जो
गिरकर पहाड़ियों में बदन चूर हो गया

आने लगी विदेश से दावत जो अब मुझे
अपने शहर में यकबयक मशहूर हो गया

मुश्किल समय में सर पे थी मां बाप की दुआ
दुश्मन सभी के सामने बेनूर हो गया

ग़म और ख़ुशी के अहसासों को बड़े नाजुक ढ़ंग से अपने शेरों में पिरोया है डॉ. अग्रवाल ने। महिलाओं के प्रति उनके मन में बहुत आदर, स्नेह और कोमल भावनात्मक रिश्तों का ज़ख़ीरा है । वे कहते हैं ….

न बुझ सकी है उसी तिश्नगी से डरता हूं
उदास रात की आवारगी से डरता हूं

भटक रहा हूं जो बचपन से ही अंधेरों में
मिले भी ख्वाब में तो रोशनी से डरता हूं

बहन की, सास की, मां की, बहू की, बेटी की,
सिसक रही है उसी ज़िन्दगी से डरता हूं

न कुछ कहूं, न सुनूं, हो न फिर महाभारत
तमाम उम्र यहां द्रोपदी से डरता हूं

मैं चाहता हूं रहूं साथ में अदीबों के
मैं रोज़ सर पे खड़ी त्रासदी से डरता हूं

डॉ. अग्रवाल को छोटी बहर की ग़ज़लों में भी बड़ी बात कह जाने की महारत हासिल है, ये ग़ज़ल देखें -

रास्ते में कदम कदम जैसे
जी लिए हम कई जन्म जैसे

जिस तरह सोचती है ये दुनिया उस तरह के नहीं है हम जैसे

आख़िरी बार उसको यूं देखा रुक गई हो वहीं कलम जैसे

मेरे अहसास के सफ़े गीले
मेरी क़िस्मत में सिर्फ़ ग़म जैसे

नाग नागिन से आस्तीनों में
आप लोगों के हैं करम जैसे

शायरी फन ए शायरी भी हो
शेर कहते नहीं भरम जैसे

ग़ज़ल में रचे बसे शायर डॉ. महेन्द्र अग्रवाल ने जिन ऊंचाइयों को छूआ है, वहां तक पहुंचना हर किसी के वश में नहीं है। साहित्य सागर पत्रिका ने उन पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया था। जिसमें उनके कृतित्व, व्यक्तित्व पर महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गई है। डॉ. अग्रवाल की शायरी बेहद दिलकश है। उनकी ये ग़ज़ल “फनकारी सा कुछ तो है” में संग्रहीत बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है -

यहां है कौन जिसे कोई गम नहीं होता
तुम्हें है ज़्यादा तो मुझे भी कम नहीं होता

तमाम उम्र रुलाती है ज़िन्दगी सबको
नहीं वो आंख या दामन जो नम नहीं होता

जहां चिराग जलाए हैं हाथ से मैंने
वहां हवा के थपेड़ों में दम नहीं होता

सलीकेदार कहन बांधती है मिसरों को
समझ हो फन की तो शेरों में जम नहीं होता

सियासी दांव ने सर पर बिठा दिया फिर भी
‘नमूना’ गांव का यूं मोहतरम नहीं होता


'फनकारी सा कुछ तो है' का विमोचन

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