बुधवार, अक्तूबर 24, 2018

ग़ज़ल ... सच तो ये है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

रेशमी फूल हवा भी ताज़ा
ख़त मेरे नाम क्यों नहीं आया

झील परछाइयों से लबालब है
उस तरफ है शज़र, इधर छाया

दौड़ती भागती हुई दुनिया
इस सड़क को कहीं नहीं जाना

सच तो यह है कि एक ख़ामोशी
कह रही आज शोर की गाथा

धुपधुपाती है बत्ती सी
सांस का देह से यही नाता

उम्र मेरी तमाम भीग गई
चूम कर वो गया मेरा माथा

धूप- "वर्षा" का ये अजब मौसम
बर्फ सी रात, दिन हुआ पारा


6 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. हार्दिक आभार 🙏
      श्वेता जी, आपने मेरी ग़ज़ल को अपने समवेत ब्लॉग में शामिल कर मेरा उत्साहवर्धन किया है, पुनः हार्दिक आभार 🙏

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  2. बहुत ही ख़ूबसूरत शेर ...
    गहराई लिए नया अन्दाज़ लिए ...

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