शनिवार, अक्तूबर 20, 2018

ग़ज़लों के हुनरबाज़ बशीर बद्र

Dr. Varsha Singh

सैयद मोहम्मद बशीर को हम सब बशीर बद्र के नाम से जानते हैं। उनकी शायरी हर दिल अजीज़ है। ग़ज़ल कहने का जो हुनर उनमें है वो उस तरह से औरों में नहीं।
उनकी ये ग़ज़ल इसी हुनर का आईना है….
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे

कह देना समुंदर से हम ओस के मोती हैं
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आएँगे

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें
अब जो भी उठाएँगे मिल जुल के उठाएँगे

जब साथ न दे कोई आवाज़ हमें देना
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठाएँगे

ज़िंदगी की हकीक़त को बेहद ख़ूबसूरती और सलीके से अपनी ग़ज़लों के ज़रिए बयां करना बशीर बद्र साहब की ख़ासियत है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को हिन्दी के क़रीब ला कर एक नया लहजा दिया।

कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

वही ख़त कि जिस पे जगह जगह दो महकते होंटों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहँदियों से रचा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ

मिरे साथ जुगनू है हम-सफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ
Dr. Bashir Badr

बशीर बद्र की शायरी में ऐसी ताज़गी है कि कई दफ़ा पढ़ने, सुनने के बावजूद उसमें पुरानेपन का एक रेशा भी नहीं मिलता, उनकी ये ग़ज़ल देखें...
होठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समंदर के ख़ज़ाने नहीं आते।

पलके भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आंखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते।

दिल उजडी हुई इक सराय की तरह है
अब लोग यहां रात बिताने नहीं आते।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।

इस शहर के बादल तेरी जुल्फ़ों की तरह है
ये आग लगाते है बुझाने नहीं आते।

क्या सोचकर आए हो मुहब्बत की गली में
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते।

अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गये है
आते है मगर दिल को दुखाने नहीं आते।

इन दिनों 83 साल की उम्र में बशीर बद्र की याददाश्त अब उनका साथ नहीं दे रही है। हज़ारों शेर उनके ज़ेहन में कहीं दुबके पड़े हैं। उनका ये मशहूर शेर जिसे वो भूल रहे हैं, सारी दुनिया याद कर रही है….

हजारों शेर मेरे सो गए कागज की कब्रों में,
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा जिंदा नहीं रहता।

बाएं से - डॉ. वर्षा सिंह, शायर बशीर बद्र, डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


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