शुक्रवार, अक्तूबर 05, 2018

ग़ज़ल और बल्लीसिंह चीमा


Dr. Varsha Singh
जब से हिन्दी ग़ज़ल के रूप में ग़ज़लों का एक और भाषाई रूप परवान चढ़ा तब से उर्दू और हिन्दी ग़ज़लों के शिल्प को ले कर चिन्तन भी जन्मने लगा। संदर्भगत् चर्चा आवश्यक है कि ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भांति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भांति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को ’हुस्नेमतला’ कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा ’ऊला’ और दूसरा मिसरा ’सानी’ कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को ’जू काफ़िया’ कहते हैं।
बल्लीसिंह चीमा
ग़ज़ल के शिल्पगत नियमों का गंभीरता से पालन करने का उदाहरण बल्ली सिंह चीमा की इस ग़ज़ल में देखिए -
साज़िश में वो ख़ुद शामिल हो, ऐसा भी हो सकता है,
मरने वाला ही क़ातिल हो, ऐसा भी हो सकता है ।

आज तुम्हारी मंज़िल हूँ मैं, मेरी मंज़िल और कोई,
कल को अपनी इक मंज़िल हो, ऐसा भी हो सकता है ।

साहिल की चाहत हे लेकिन, तैर रहा हूँ बीचों-बीच,
मंझधारों में ही साहिल हो, ऐसा भी हो सकता है ।

तेरे दिल की धडकन मुझको लगे है अपनी-अपनी-सी,
तेरा दिल ही मेरा दिल हो, ऐसा भी हो सकता है ।

जीवन भर भटका हूँ ‘बल्ली’, मंज़िल हाथ नहीं आई,
मेरे पैरों में मंज़िल हो ऐसा भी हो सकता है ।

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