शुक्रवार, अप्रैल 26, 2019

ग़ज़ल .... आग उगलता सूरज - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

        web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 26 अप्रैल 2019 में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल .....

आग उगलता सूरज
                     - डॉ. वर्षा सिंह

कितने दिन हो गये, न बदली दिनचर्या ।
घर, दफ्तर के बीच बंधी सीमित दुनिया ।

कंकरीट के जंगल में हम क़ैद हुए ,
कभी-कभी भूले से दिख जाती चिड़िया ।

दूर कहीं ले जाती जो देशाटन को,
हाथ कभी लग जाती जादू की पुड़िया ।

जी में आता है अक्सर हम भाग चलें ,
जहां कहीं बहती सुकून की हो नदिया ।

आग उगलता सूरज, धरती सूख रही,
काश, कभी खुल जाती "वर्षा" की डिबिया।

युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏

http://yuvapravartak.com/?p=14015

मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में मेरी ग़ज़ल इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...

ग़ज़ल - डॉ. वर्षा सिंह # ग़ज़लयात्रा

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