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रविवार, जुलाई 26, 2020

चांद | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, मेरे ग़ज़ल संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत एक और ग़ज़ल प्रस्तुत है....
चांद
     - डॉ. वर्षा सिंह

यादों से भी गहरा चांद
पिघले कतरा-कतरा चांद

परदेसी सा आता जाता
नीम गांछ पर ठहरा चांद

प्रियतम का ख़त पूरनमासी
अक्षर -अक्षर उतरा चांद

धार बेतवा की दर्पण-सी
देखी अपना चेहरा चांद

झील नहाए पर्वत सोए
रोशन ज़र्रा- ज़र्रा चांद

हरियाला बन्ना विंध्याचल
माथे सोहे चेहरा चांद

रात के काले लंबे गेसू
किसने बांधा गजरा चांद

फ़ुरकत के बेबस लम्हों में
इश्क़ परिन्दा, पिंजरा चांद

तन्हाई का आलम 'वर्षा'
ग़ज़ल चांदनी मिसरा चांद
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गुरुवार, जुलाई 09, 2020

ग़ज़ल जब बात करती है | ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह | समीक्षा | आचरण

ग़ज़ल जब बात करती है (ग़ज़ल संग्रह) - डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरे ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल जब बात करती है"  की समीक्षा "आचरण" समाचारपत्र  दिनांक 25.06.2020 में प्रकाशित हुई है।
हार्दिक आभार आचरण🙏
हार्दिक आभार डॉ. महेश तिवारी जी 🙏

ग़ज़ल जब बात करती है, समीक्षा, आचरण, सागर,

पुस्तक समीक्षा

‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’: नए मुहावरे गढ़ता ग़ज़ल संग्रह

समीक्षक - डॉ. महेश तिवारी

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पुस्तक: ग़ज़ल जब बात करती है (ग़ज़ल संग्रह)
कवयत्री: डॉ. वर्षा सिंह
प्रकाशन वर्ष: 2020, प्रथम संस्करण
मूल्य :   200/-
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, बस स्टैंड, सीहोर (म.प्र.)
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‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’ जैसा कि पुस्तक का शीर्षक है, वह अपने आप में बात करने की सार्थकता स्वयं सिद्ध करता है। शब्दों के माध्यम से भावों की प्रबलता सीधे आत्मा में प्रवेश कर जाती है। ग़ज़ल में रूहानियत भी है और रूमानियत भी है। ये ग़ज़लें सामाजिक जीवन मूल्यों को स्पर्श करती है। ये न केवल झकझोर देती हैं, जीवन को स्पंदित भी करती हैं। ग़ज़ल को प्राणवान बनाने की दिशा में डॉ वर्षा सिंह को न केवल ख्याति देता है, प्रतिष्ठापित भी करता है। वर्तमान युग में महान ग़ज़लकार या कहें कि हिन्दी ग़ज़ल की अस्मिता को स्थापित करने वाले दुष्यंत कुमार की विरासत और परंपरा को गतिशील बनाने में अपनी कलम से डॉ वर्षा जो इबारत लिख रही हैं, वह साहित्याकाश में, ग़ज़ल की दुनिया में एक नया मुकाम हासिल कर चुकी हैं।        
ग़ज़लकार परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता है। ग़ज़ल में सूफियाना अंदाज और गायकी दुनिया में जो स्वर मिलता है उससे ग़ज़ल और ज्यादा जीवंत हो उठती है। डाॅ वर्षा सिंह की ग़ज़लों में तंज भी है जो चुभते हैं और आंदोलित भी करते हैं। कविता हो या शायरी, किसी ना किसी पीड़ा से जन्म लेती है। फिर चाहे वह प्रेम, प्रकृति या समाज की पीड़ा हो, यह पीड़ा रचनाकार को गहरी संवेदनशीलता प्रदत्त करती है। उनके ये शेर देखें-
चला रहे हैं आरियां, वो जंगलों की  पीठ पर
कटे हैं पेड़ जिस जगह,वहीं थी ज़िन्दगी कभी।
उदास है  किसान, कर्ज़ के तले,  दबा हुआ
दुखों की छांव है वहां, रही जहां ख़ुशी कभी।
डरा हुआ  है  बालपन, डरी  हुई  जवानियां
निडर  समाज  फिर बने, रहे न बेबसी कभी।

डाॅ. वर्षा सिंह पर्यावरण के प्रति चिंता की लकीरें खींचती हैं जिसमें जंगल की बात है, सपनों की बात है, किताबों को जीवन से जोड़ने की बात है।
दुख-सुख की हैं सखी किताबें।
लगती कितनी सगी किताबें।
जीवन की दुर्गम राहों में ,
फूलों वाली गली किताबें।

उनकी यह ग़ज़ल यह साबित कर देती है कि दुख हो या सुख, किताबें हर स्थिति में बौद्धिक ऊर्जा प्रदान करती हैं तथा मनुष्य को तनाव से मुक्ति भी दिलाती हैं। डाॅ. वर्षा की ग़ज़लों में एक ओर जहां करुणा-प्रेम है तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक विसंगतियों को भी उजागर किया गया है।

डाॅ. वर्षा सिंह अनवरत लिख रही हैं और वे जो भी लिख रही हैं वह अनुभूत सत्य का उद्घाटन है। अपनी लेखनी की पैनी धार से पाठकों तक पहुंचने का डाॅ. वर्षा सिंह का यह सत्कर्म उन्हें साहित्य जगत में अपने लेखन की सार्थकता सिद्ध कर शिखर तक पहुंचाने से नहीं रोक सकता। मेरा मानना है कि ग़ज़ल संवेदना है, करुणा है और प्रेम के धरातल को स्पर्श करती हुई सामाजिक विडंबना तथा मानव मात्र की पीड़ा को उजागर करने का दुस्साहस है, जो डाॅ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

‘ग़ज़ल जब बात करती है’ अर्थात संवाद करती है तो निश्चित रूप से उठाए गए मसलों को रास्ता मिलता है, सोचने-समझने की दिशा मिलती है। डाॅ. वर्षा यंह की यह ग़ज़ल इसी बात का संदेश देती है कि -
ग़ज़ल जब बात करती है, दिलों के द्वार खुलते हैं।
ग़मों की स्याह  रातों में  खुशी के  दीप जलते हैं।
सुलझते हैं  कई  मसले,  मधुर  संवाद  करने से
भुलाकर दुश्मनी  मिलने के  फिर पैगाम मिलते है।


संग्रह में समूची ग़ज़लों के बारे में यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी ग़ज़ल सबसे अच्छी है, यह तय कर पाना कठिन है। सभी ग़ज़लों की श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध हो रही है। डाॅ. वर्षा की रचनाशीलता इसी प्रकार निरंतर बनी रहे। जिस तरह नदी अपने उद्गम को पीछे मुड़कर कभी नहीं देखती, इसी तरह वह डाॅ. वर्षा सिंह भी साहित्य की धारा को प्रवाहमान बनाए हुए हैं। उनका यह छठवां ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल जब बात करती है’ एक ऐसे विशिष्ट ग़ज़लों का गुलदस्ता है जो प्रत्येक पाठक वर्ग को लुभाने में सक्षम है। उनसे संवाद करने में सक्षम है। डाॅ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों की यह विशेषता है कि वह किसी भाषा विशेष पर केंद्रित होकर नहीं रह जाती हैं। विश्वास करती हैं भावनाओं को, संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने में इसीलिए उनकी ग़ज़लों में हिंदी, उर्दू, स्थानीय बोली के शब्द तथा अंग्रेजी के शब्द भी सहज रूप से मिलते हैं। इन शब्दों से ग़ज़लों का प्रभाव और बढ़ जाता है और प्रत्येक पाठक को यह ग़ज़लें अपने हृदय से निकली हुई प्रतीत होती हैं। उदाहरण देखें-
पैकेजों का  जाल,  ज़िन्दगी उलझी है।
मत पूछो क्या हाल, ज़िन्दगी उलझी है।
आज यहां हैं,कल हम होंगे और कहीं
बदल रहे हैं साल, ज़िन्दगी उलझी है।
छीन लिया सुख-चैन कैरियर ने सारा
क़दम मिलाते ताल, ज़िन्दगी उलझी है।


 डाॅ. वर्षा सिंह का यह ताजा ग़ज़ल संग्रह पाठकों के बीच तेजी से लोकप्रियता हासिल करता जा रहा है। उनकी आकांक्षा उनके शेरों में बड़ी खूबसूरती से प्रकट होती है-
काश, मंज़र  आज  जैसा  उम्र भर  क़ायम रहे।
तुम पढ़ो, जो मैं लिखूं, यह सिलसिला हरदम रहे।
छल-कपट से हो न नाता, स्वार्थ की बातें न हों
धड़कनों में प्यार की,  बजती  सदा सरगम रहे।

डाॅ. वर्षा सिंह अपनी ग़ज़लों के माध्यम से नए मुहावरे गढ़ती हैं। उनकी ग़ज़लों में बिंबो का नयापन है, जो हिंदी ग़ज़ल को और समृद्ध करता है। यूं भी हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में डाॅ. वर्षा सिंह का नाम एक जाना पहचाना नाम है और उनकी ग़ज़लें विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध संदर्भ में शामिल हो चुकी है उनका यह नया ग़ज़ल संग्रह ‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’ ग़ज़ल प्रेमियों को तो पसंद आएगा ही, साथ ही शोधार्थियों के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।
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पता-
डॉ महेश तिवारी
98,  रविशंकर वार्ड,
सागर (म प्र)
मोबाईल - 9302910446



शनिवार, मार्च 23, 2013

गहन संवेदनाओं की ग़ज़लें






‘नई ग़ज़ल’ के जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित मेरे ग़ज़ल संग्रह ‘दिल बंजारा’ की समीक्षा ......









गहन संवेदनाओं की ग़ज़लें
- गुलाबचंद

डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों में एक विशिष्ट शब्द-सौंदर्य तथा लय का माधुर्य मिलता है जिसमें पाठक से सीधा संवाद करने की अद्भुत क्षमता निहित रहती है। प्रत्येक ग़ज़ल का प्रत्येक शेर पाठक  को अपने साथ इस तरह आत्मसात कर लेता है गोया उस शेर में उसकी अपनी जि़न्दगी व्यक्त की गई हो। उनके इस नूतन संग्रह ‘दिल बंजारा’ में संग्रहीत ग़ज़लों का काव्य सौंदर्य तथा कथ्य और शिल्प का अद्भुत तालमेल पाठक वर्ग को अपने दिल की अभिव्यक्ति लगने का आभास देगा।

हिन्दी ग़ज़ल अपने जिस तेवर के लिए जानी-पहचानी जाती है उसका निखरा हुआ रूप डॉ. वर्षा की ग़ज़लों में देखा जा सकता है। डॉ. वर्षा की ग़ज़लगोई की यही खूबी है कि वे जब माधुर्य भरे प्रेम की बात कहती हैं तो भावनाओं की कोमलता के झरने फूट पड़ते हैं। यथा -
कोई छू ले पिघलती हुई चांदनी।
मेरा आंचल सुलगती हुई चांदनी।
चांद आया हज़ारों  सितारे लिए
दे गया इक महकती हुई चांदनी।
उसके हाथों से मौसम गिरा है वहंा
देखिए, वो फिसलती हुई चांदनी।

कवयित्री ने दैनिक जीवन की समस्याओं के विविध आयामों को बड़ी सहजता से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है। इन ग़ज़लों की दृश्यात्मकता अंतरंग तथा बहिरंग दृश्यों से एक साथ साक्षात्कार कराती है। भावबोध की दृष्टि से ये ग़ज़लें चाक्षुष प्रभाव लिए हुए हैं। इन ग़ज़लों में चिन्ता है, आशा है, दुख-सुख है और इन सब को मिला कर जीवन की मीमांसा है। स्त्री और पुरुष के अनुपात में तेजी से आता अन्तर और उससे उत्पन्न होने वाला संभावित संकट वर्षा सिंह की ग़ज़ल में अत्यंत मुखर हो कर सामने आता है -
अमृत  वहां  ज़हर है,  जहां औरतें नहीं।
वो घर न कोई घर है, जहां औरतें नहीं।

आंसू, हंसी, खुशी की  वहां  दौलतें नहीं
बेहद  उदास  दर है,  जहां औरतें नहीं।

वर्तमान में सामाजिक संरचना अपने जिस जटिल दौर से गुज़र रही है उसमें पारिवारिक विखण्डन, बिखराव और परस्पर पारिवारिक संबंधों की संवेदनशीलता में तेजी से कमी आती जा रही है।
चंद सिक्कों के बदले बिकी बेटियां।
चीज़ सौदे की अकसर बनी बेटियां।
भाइयों  के  न  पैरों में  कांटें चुभे

बीनती  सारे  कांटे  चली बेटियां।
बंधनों  की  भुलैया  में  ऐसी गुमी
कह न पाई हक़ीकत कभी बेटियां।

वर्षा सिंह की ग़ज़लों में रूमानियत के साथ ही पर्यावरण पर गहराते संकट के प्रति भी गहरी चिन्ता  दिखाई देती है-
कट रहे जंगल  हरीले,  और हम ख़ामोश हैं।
हो  रहे हैं  होंठ नीले,  और हम ख़ामोश हैं।
शेष यदि जंगल न होंगे सूख जाएगी नदी
चींखते ये शब्द सीले, और हम ख़ामोश हैं।

शब्दों के चयन के मामले में वर्षा सिंह बहुत सतर्क हैं। वे एक-एक शब्द इस तरह चुन-चुन कर रखती हैं कि उनकी ग़ज़लों में उन शब्दों से इतर किसी और शब्द के होने की गुंजाइश दिखाई नहीं देती है। हर पंक्ति सरल शब्दों में उभर कर सामने आती है और जीवन की बारीकियों से जोड़ती चली जाती है। शब्दों को इस तरह साधा जाना ग़ज़लों को रोचक बनता ही है, साथ ही उसकी संप्रेषणीयता को भी बढ़ा देता है। यही कारण है कि वर्षा सिंह की ग़ज़लें समकालीन ग़ज़लकारों की ग़ज़लों के बीच अपनी अलग पहचान बनाती दिखाई देती हैं। संग्रह में बड़े बहर और छोटे बहर दोनों प्रकार की ग़ज़लें हैं। छोटे बहर की ग़ज़लों में भी वही पैनापन है जो बड़े बहर की ग़ज़लों में है- हर क़तरा गुमराह हुआ है।
मौसम  लापरवाह हुआ है।
जाने कैसी  हवा चली ये
पत्ता-पत्ता स्याह  हुआ है।

इस ग़ज़ल संग्रह में अंतर्सम्वेदनाजनित राग-विराग से जुड़ी ग़ज़लें हैं। इनमें दुख भी है, सुख भी। मोह है, पीड़ा भी। कल्पना है तो यथार्थ भी और यह विश्वास दिलाती है कि ये ग़ज़लें गहन अनुभवों से रच-बस कर सामने आई हैं। इस दृष्टि से वर्षा सिंह का यह ताज़ा ग़ज़ल संग्रह ‘दिल बंजारा’ हर मनोदशा के पाठक की पसन्द में खरा उतरने योग्य है।   
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पुस्तक   - दिल बंजारा
कवयित्री -  डॉ. वर्षा सिंह
प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन, डी-626,गली नं.1, अशोकनगर,(निकट ललितामंदिर),शाहदरा,
          दिल्ली -110093
मूल्य     - 195/-
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