सोमवार, नवंबर 12, 2018

ग़ज़ल - सोचते थे हम.... डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


सोचते थे हम सुरक्षित जिन सरोकारों के दर
छत दीवारों से अटी थी दीमकें थीं भीत पर  

फ़ैसले में जब मिला संवेदनाओं को जहर
चुप रहे सब पेन की टूटी हुई निब देख कर

और लोगों की तरह वह हंस नहीं पाती कभी
एक लड़की टूटती, जुड़ती, सिसकती रात भर

न्यूनतम दर पर बिकी है आदमी की ज़िन्दगी सुर्खियों में छप न पाई इस दलाली की ख़बर

औरतें  धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
चौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर

फूट कर रिसती हताशा, मन दवाएं ढूंढता  
तय बमुश्किल हो रहा है शोकगीतों का सफ़र

तोड़कर दर्पण न खुद से भाग पायेंगें कभी
था हमें मालूम “वर्षा”, भूल बैठे थे मगर
                                         - डॉ. वर्षा सिंह


12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. यशोदा जी, आपके इस अनुग्रह के लिए हार्दिक आभार 🍁🙏🍁

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  2. वाहहह बेहद लाज़वाब. गज़ल वर्षा जी...हर शेर बहुत जानदार और अर्थ पूर्ण हैं।
    न्यूनतम दर पर बिकी है आदमी की ज़िन्दगी सुर्खियों में छप न पाई इस दलाली की ख़बर

    औरतें धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
    चौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर

    बेहद उम्दा👌👌

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    1. श्वेता सिन्हा जी,
      आपने मेरी ग़ज़ल की सराहना की इस हेतु अत्यंत हार्दिक आभार आपका 🙏

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  3. हर शेर कमाल है ... बहुत ही संवेदनशील शेर ...
    नए बिम्ब ... सच्ची बातें ... वाह वाह निकलती है, दाद निकलती है हर शेर पर ...

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    1. आप सरीखे ग़ज़ल के सिद्धहस्त हस्ताक्षर द्वारा प्रशंसा पाना मायने रखता है....

      बहुत बहुत आभार 🙏🍁🙏

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  4. अप्रतिम अद्भुत चिंतनशील!
    हर शेर मन पर छाप छोडता हर शेर लाजवाब ।

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  5. लाजवाब गजल...दमदार शेरों से सजी...
    वाह!!!
    फूट कर रिसती हताशा, मन दवाएं ढूंढता
    तय बमुश्किल हो रहा है शोकगीतों का सफ़र

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  6. औरतें धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
    चौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर!!!!!!!
    आह के साथ वाह भी आदरणीय वर्षा जी | ये नये प्रतीक और बिम्ब रचना को प्रभावी और सराहनीय बनाते हैं |

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