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Dr. Varsha Singh |
अब नहीं होता मुझे ताज्जुब किसी भी बात पर
चोट खाई सी सुबह या घाव जैसी रात पर
स्वप्न आयातित फफूंदों से जमे हैं आंख पर
और ख़्वाहिश हम रचें दुनिया समूची हाथ पर
खूंटियों पर “बुद्ध”,”लिंकन”, “वाल्टेयर” टांग कर
छेड़ते बहसें सदा हम आदमी की जात पर
चाह कर भी वे कहीं छुप-भाग पाते हैं नहीं
ज़िन्दगी रेखांकित होती है जिनके माथ पर
अधमरी सी चेतना के चिन्ह होते हैं लगे
भोथरे से फूल पर या जंग खाए पात पर
बुजबुजाती झाग वाली धूसरी धर्मांधता
थोकने की साजिशें होतीं सदा नवजात पर
क़ाग़ज़ों पर कीच, पेनों में उमसती स्याहियां
किस तरह “वर्षा” लिखें ग़ज़लें बुझी बरसात पर
-डॉ. वर्षा सिंंह
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार 30 नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार आपका श्वेता जी
हटाएं🌹🌷🌺🌷🌹
वाह जबरदस्त अदायगी आदरणीया।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद कुसुम जी
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रचना पढ़ते हुए जिस दर्द का अहसास होता है यही इसकी सार्थकता है
जवाब देंहटाएंआभार महोदय
हटाएं🙏
लाजवाब गजल...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत बहुत धन्यवाद
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