मंगलवार, नवंबर 13, 2018

ग़ज़ल .... मैं नदी बन भी गई तो क्या हुआ - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

कट रहे हैं जंगलों के हाशिए
चांदनी ने रात भर आंसू पिए

अब नहीं वे  डालियां जिन पर कभी
बुलबुलों ने प्यार के दो पल जिए

किस तरह उजड़ी हुई सी भूमि पर
रख सकेंगे उत्सवों वाले दिए

मैं नदी बन भी गई तो क्या हुआ
कौन जो सागर बने मेरे लिए

पर्वतों के पास तक पहुंचे नहीं
घाटियों ने खूब दुखड़े रो लिए

सूखते जल स्रोत बादलहीन नभ
वनकपोती की व्यथा मत पूछिए

दे रहे न्योता प्रलय ये स्वयं
आज मनु के वंशजों को देखिए

सर्पपालन का अगर है शौक तो
आस्तीनों में न अपने पालिए

आजकल "वर्षा" रदीफ़ों की जगह
अतिक्रमित करने लगे हैं काफ़िए
       
                           - डॉ. वर्षा सिंह


11 टिप्‍पणियां:

  1. मैं नदी बन भी गई तो क्या हुआ
    कौन जो सागर बने मेरे लिए ...
    बहुत ही कमाल का शेर ... दिल को छूता है ... पूरी ग़ज़ल लाजवाब है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 17 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. अब नहीं वे डालियां जिन पर कभी
    बुलबुलों ने प्यार के दो पल जिए
    किस तरह उजड़ी हुई सी भूमि पर
    रख सकेंगे उत्सवों वाले दिए !!!!
    हर शेर कमाल का है वर्षा जी | पूरी रचना शानदार है | नये रंग की इस रचना के लिए सस्नेह बधाई |

    जवाब देंहटाएं
  4. हर शेर गहरे अर्थ लिए है। बहुत सुंदर लगी रचना वर्षा जी। सादर बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. बेमिसाल कृति, सत्य का चेहरा दिखाई आशंका एक वीभत्स सच की ।

    जवाब देंहटाएं