शब्द बिंब ही अर्थों को अब बहकाएं
संदर्भों ने बांध दिया संबंधों को
निर्धारित कर दी हैं सब की सीमाएं
शेष नहीं वे क्षण जो जोड़ें तन मन को
भीगे उजियालों से माथा सहलाएं
तटस्थता का राग उन्हीं ने छेड़ा है
आदत जिनकी उलझें, सबको उलझाएं
कालजयी होने का जिनको दंभ यहां
अक्सर छूटीं उनके हाथों वल्गाएं
समझौते की चर्चा झेल न पाई हैंं
निर्णय पर कायम रहने की विपदाएं
अंतरिक्ष में नीड़ भला कब बन पाए
आश्रय देती हैं भू पर ही शाखाएं
अवसरवादी सुविधा भोगी सांसों को
सहनी ही पड़ती हैं ढेरों कुंठाएं
व्यथा विरत कवि नहीं कभी भी हो पाये
“ मां निषाद” वाल्मीकि रचेंगे रचनाएं
कहते हैं आशाओं का आकाश वृहद
चुटकी भर मैंने भी भर ली आशाएं
पूरी की पूरी तस्वीर उकेरेंगी
वाह्ह्ह..... वाहहह... बहुत शानदार ग़ज़ल वर्षा जी।
जवाब देंहटाएंहर बंध संदेशात्मक और सारगर्भित है।
बधाई सुंदर सृजन के लिए।
सादर।
आपकी टिप्पणी के लिए हृदय से आभार 🙏🌹🙏
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