Dr. Varsha Singh |
मेरी ग़ज़ल को web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 27 मार्च 2019 में स्थान मिला है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
वो भी क्या दिन थे जब मौसम, भला-भला सा लगता था।
सपना इक मासूम सुहाना, मेरे दिल में पलता था।
इश्क़ बिछौना डाले रहता ख़्वाबों में, तन्हाई में,
मिलते ही नज़रों से नज़रें, कहीं दुबक कर छुपता था।
फूल कापियों में रहते थे, नॉवेल कॉलेजी बुक में,
अक्सर टेबिल की दराज़ में, रखा आईना रहता था।
वो भी क्या दिन थे जब रातें भी दिन जैसी लगती थीं,
सांझ से ले कर वक़्त सुबह तक, खुली आंख से कटता था।
अब यादों में बीते दिन के इन्द्रधनुष रंग भरते हैं,
इन्द्रधनुष पर तब "वर्षा" का इन्द्रजाल सा चलता था।
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- डॉ. वर्षा सिंह
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