गुरुवार, मई 14, 2020

🤔 घर वापसी करते प्रवासी श्रमिकों की व्यथा-कथा को समर्पित | ग़ज़ल | दर -दर की ठोकर लिक्खी है | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

घर वापसी करते प्रवासी श्रमिकों की व्यथा-कथा को समर्पित एक ग़ज़ल

दर -दर की ठोकर लिक्खी है
           - डॉ. वर्षा सिंह

कांधे पर है बोझ गृहस्थी का पांवों में छाले हैं।
दर -दर की ठोकर लिक्खी है, खोटी क़िस्मत वाले हैं।

गांव, गली, घर छोड़ा था सब, पैसे चार कमाने को,
अब जाना ये महानगर भी दिल के कितने काले हैं।

भूख-प्यास से बढ़ कर भैया, नहीं बिमारी कोई है,
क़दम-क़दम भुखमरी-ग़रीबी, यहां सैकड़ों ताले हैं।

अम्मा, बाबू, चंदा, बुधिया, गुड्डू, मुन्नी, रामकली
एक मजूरी के बलबूते कितने प्राणी पाले हैं।

दर्ज़ रहेंगे तारीखों में "वर्षा" मुश्किल वाले दिन,
अगर न टूटी सांस कहेंगे- 'दुर्दिन देखे-भाले हैं।'

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आज web magazine युवाप्रवर्तक दि. 14.05.2020 में मेरी यह ग़ज़ल "दर -दर की ठोकर लिक्खी है" प्रकाशित हुई है...
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏



मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=32685

6 टिप्‍पणियां:

  1. अम्मा, बाबू, चंदा, बुधिया, गुड्डू, मुन्नी, रामकली
    एक मजूरी के बलबूते कितने प्राणी पाले हैं।
    .... हृदय को छूती पंक्तियाँ!

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  2. मौजूदा हालात को बयान करती मार्मिक ग़ज़ल

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    1. आदरणीय शास्त्री जी , आपके प्रति हार्दिक आभार 🙏

      हटाएं
  3. कांधे पर है बोझ गृहस्थी का पांवों में छाले हैं।
    दर -दर की ठोकर लिक्खी है, खोटी क़िस्मत वाले हैं।
    बहुत मार्मिक रचना वर्षा जी | इन खोटी किस्मत वाले अभागों के लिए और क्या लिखा जा सकता है दर्द के सिवाय |

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