गुरुवार, नवंबर 29, 2018

ग़ज़ल ... अब नहीं होता मुझे ताज़्जुब - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

अब नहीं होता मुझे ताज्जुब किसी भी बात पर
चोट खाई सी सुबह या घाव जैसी रात पर

स्वप्न आयातित फफूंदों से जमे हैं आंख पर
और ख़्वाहिश हम रचें दुनिया समूची हाथ पर

खूंटियों पर “बुद्ध”,”लिंकन”, “वाल्टेयर” टांग कर
छेड़ते बहसें सदा हम आदमी की जात पर

चाह कर भी वे कहीं छुप-भाग पाते हैं नहीं
ज़िन्दगी रेखांकित होती है जिनके माथ पर

अधमरी सी चेतना के चिन्ह होते हैं लगे
भोथरे से फूल पर या जंग खाए पात पर

बुजबुजाती झाग वाली धूसरी धर्मांधता
थोकने की साजिशें होतीं सदा नवजात पर

क़ाग़ज़ों पर कीच, पेनों में उमसती स्याहियां
किस तरह “वर्षा” लिखें ग़ज़लें बुझी बरसात पर

         -डॉ. वर्षा सिंंह

सोमवार, नवंबर 26, 2018

ग़ज़ल ... जहां पे आज रेत है - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

जहां पे आज रेत है, वहीं पे थी नदी कभी
जले थे प्रेम के दिये, हुई  थी रोशनी कभी

कहा था शाम को मिलेगा, सीढ़ियों पे घाट की
वो शाम घाट पर मगर, मुझे नहीं मिली कभी

चला रहे  हैं आरियां, वो जंगलों  की  देह पर
कटे हैं पेड़ जिस जगह, वहीं थी ज़िन्दगी कभी

उदास है किसान, कर्ज  के तले, दबा  हुआ
दुखों की छांव है वहां, रही जहां ख़ुशी कभी

डरा हुआ  है बालपन, डरी हुई  जवानियां
निडर समाज फिर बने, रहे न बेबसी कभी

अनेकता  में  एकता  ही  हमारी  शक्ति है
देशभक्ति की डगर, अलग नहीं रही कभी

जहां पे ”वर्षा” हो रही है, गोलियों की इन दिनों
वहां पे  अम्नो-चैन  की, बजेगी  बांसुरी कभी

     - डॉ. वर्षा सिंह

रविवार, नवंबर 25, 2018

ग़ज़ल ... और कब तक अंधकूपी रात दिन - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

वर्जनाओं से बिखरते जा रहे
दर्पणी सपने दरकते जा रहे

जो अप्रस्तुत है उसी की चाह में
रिक्त सारे पंख झड़ते जा रहे

प्यार का मधुबन न उग पाया यहां
कसमसाते छंद ढलते जा रहे

कष्ट की काई जमीं हर शब्द पर
अर्थ के प्रतिबिंब मिटते जा रहे

चुक रहे संदर्भ रिश्तों के सभी
हम स्वयं से आज कटते जा रहे

लीक के अभ्यस्त पांवों के तले
मुक्ति के अनुबंध घिसते जा रहे

बन न पाया मन कभी निर्वात जल
हम हिलोरों में हुमगते जा रहे

और कब तक अंधकूपी रात दिन
पूछते पल-छिन गुज़रते जा रहे

जागरण “वर्षा’’ ज़रूरी हो गया
मूल्य जीवन के बदलते जा रहे

शनिवार, नवंबर 24, 2018

ग़ज़ल .... चांद - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh


रात के माथे टीका चांद
खीर सरीखा मीठा चांद

हंसी चांदनी धरती पर
आसमान में चहका चांद

महकी बगिया यादों की
लगता महका महका चांद

उजली चिट्ठी  चांदी- सी
नाम प्यार के लिखता चांद

"वर्षा" मांगे दुआ यही
मिले सभी को अपना चांद

 - डॉ. वर्षा सिंह

गुरुवार, नवंबर 22, 2018

ग़ज़ल ... सर्वनाम रह गये गुमी हैं संज्ञाएं - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

सर्वनाम रह गये, गुमी हैं संज्ञाएं
शब्द बिंब ही अर्थों को अब बहकाएं

संदर्भों ने बांध दिया संबंधों को
निर्धारित कर दी हैं सब की सीमाएं

शेष नहीं वे क्षण जो जोड़ें तन मन को
भीगे उजियालों से माथा सहलाएं

तटस्थता का राग उन्हीं ने छेड़ा है
आदत जिनकी उलझें, सबको उलझाएं

कालजयी होने का जिनको दंभ यहां
अक्सर छूटीं उनके हाथों वल्गाएं

समझौते की चर्चा झेल न पाई हैंं
निर्णय पर कायम रहने की विपदाएं

अंतरिक्ष में नीड़ भला कब बन पाए
आश्रय देती हैं भू पर ही शाखाएं

अवसरवादी सुविधा भोगी सांसों को
सहनी ही पड़ती हैं ढेरों कुंठाएं

व्यथा विरत कवि नहीं कभी भी हो पाये
“ मां निषाद” वाल्मीकि रचेंगे रचनाएं

कहते हैं आशाओं का आकाश वृहद
चुटकी भर मैंने भी भर ली आशाएं

पूरी की पूरी तस्वीर उकेरेंगी
भले अधूरी “वर्षा” की हैं रेखाएं




सोमवार, नवंबर 19, 2018

ग़ज़ल .... लड़ रहा अपनी हदों से आदमी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

लड़ रहा अपनी हदों से हो गया है अधमरा
आदमी अंधी गली में ढूंढता है आसरा


आजकल खामोश ‘मोचीराम’ ‘धूमिल’ का हुआ
बोलता था तांत की तनकार में हरदम खरा


इक अजब सी तिक्तता घुलने लगी है स्वाद में
जीभ तालू से चिपकती होंठ जाते थरथरा


‘सहजपुर’ देहात से ‘सागर’ शहर ना आ सका
‘रामधन’ के सामने है भार कर्ज़े का धरा


एक ढिबरी रोशनी ही ग्लोब है जिसके लिए
वह सियासत का समझ पाता नहीं है माज़रा


तोड़कर नाता बिवाई से ग़ज़ल का इन दिनों
लिख रही है ज़िन्दगी दीवान भटकावों भरा


‘बेतवा’ में बाढ़ लेकिन ‘ओरछा’ सूखा पड़ा
विवश ‘वर्षा’,क्या करें मौसम बदलता पैंतरा



शुक्रवार, नवंबर 16, 2018

चंद्रसेन विराट को चिरविदा

Dr. Varsha Singh
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार चंद्रसेन विराट नहीं रहे, उन्हें भावपूरित श्रद्धांजलि 🙏

      विराट जी का मूल नाम चंद्रसेन डोके था,  जिन्हें विराट उपनाम से समूचा काव्य जगत जानता है। वे विराट के उपनाम से ही प्रतिष्ठित कवि सम्मेलनों में सस्वर पाठ किया करते थे। 
चंद्रसेन विराट
     दूरदर्शन और आकाशवाणी द्वारा आयोजित अनेक कविगोष्ठियों में विराट जी के साथ काव्यपाठ का मुझे अवसर मिला है। बहुत ही सहज, सरल स्वभाव के व्यक्ति थे वे। मेरी ग़ज़लों के प्रति सदैव उन्होंने सकारात्मक टिप्पणी दी थी। बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह से साहित्यिक आयोजनों में जब भी विराट जी मिलते तो "शरद, आप कैसी हैं ? " प्रश्न के पश्चात उनका दूसरा प्रश्न यही होता कि "...और वर्षा जी कैसी हैं ?"
विराट जी की यही आत्मीयता आज उनकी चिरविदा की बेला को बोझिल बनाते हुए हमें शोकग्रस्त कर रही है।
चंद्रसेन विराट डॉ. (सुश्री) शरद सिंह के साथ


श्रीमती मिश्रा, विवेकरंजन श्रीवास्तव, चंद्रसेन विराट एवं डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

याद आ रही है उनकी यह ग़ज़ल - 


याद आयी, तबीयत विकल हो गई.
आँख बैठे बिठाये सजल हो गई.


भावना ठुक न मानी, मनाया बहुत

बुद्धि थी तो चतुर पर विफल हो गई.


अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर.

एक चट्टान थी वह तरल हो गई.


रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली.

वह सदा को समुज्ज्वल विमल हो गई.


आपकी गौरवर्णा वदन-दीप्ति से

चाँदनी साँवली थी, धवल हो गई.


मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी

थी समस्या कठिन पर सरल हो गई.


खूब मिलता कभी था सही आदमी

मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई.


सत्य-शिव और सौंदर्य के स्पर्श से

हर कला मूल्य का योगफल हो गई. 


रात अंगार की सेज सोना पड़ा

यह न समझें कि यों ही गज़ल हो गई.


 दुष्यन्त कुमार के बाद हिन्दी ग़ज़लों को जिन ग़ज़लकारों ने  अपनी मौलिकता को सममिश्रित कर नई ऊंचाइयां दीं, एक नयी  ज़मीन प्रदान की, उनमें चन्द्रसेन विराट  का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। चन्द्रसेन विराट ने हिन्दी ग़ज़ल को मुक्तिका की स्वतन्त्र संज्ञा दी और मुक्तिका के माध्यम से हिन्दी भाषा के तत्सम तथा गैरप्रचलित शब्दों का प्रयोग कर कथ्य और शैली के नये प्रयोगों को ग़ज़ल में ढाल कर प्रस्तुत किया। ग़ज़ल को मुक्तिका कहने का आग्रह करते हुए उनकी लिखी यह छोटी बहर की ग़ज़ल देखिये -



मुक्तिकाएँ लिखें
दर्द गायें लिखें।।


हम लिखें धूप भी 

हम घटाएँ लिखें।।


हास की अश्रु की

सब छटाएँ लिखें।।


बुद्धि की छाँव में 

भावनाएँ लिखें।।


सत्य के स्वप्न सी 

कल्पनाएँ लिखें।।


आदमी की बड़ी 

लघुकथाएँ लिखें।।


सूचनाएँ नहीं

सर्जनाएँ लिखें।।


भव्य भवितव्य की

भूमिकाएँ लिखें।।


पीढ़ियों के लिए

प्रार्थनाएँ लिखें।।


केंद्र में रख मनुज

मुक्तिकाएँ लिखें।।

अली हसन के साथ चंद्रसेन विराट

      पेशे से उच्च पदासीन अभियंता होने के बावजूद चंद्रसेन विराट ने आम आदमी के समकालीन जीवन को पैनी दृष्टि से देखा। 
 उनका जन्म 3 दिसम्बर 1936 को इन्दौर मध्यप्रदेश में हुआ था ।  आजीविका की दृष्टि से उन्होंने अभियान्त्रिकी को अपनाया था किन्तु बाल्यावस्था से ही काव्य-कर्म के प्रति उनकी गहरी रुचि बनी रही।
उनकी यह ग़ज़ल हमेशा याद की जायेगी- 


जिसकी ऊंची उड़ान होती है।
उसको भारी थकान होती है।


बोलता कम जो देखता ज़्यादा,

आंख उसकी जुबान होती है।


बस हथेली ही हमारी हमको,

धूप में सायबान होती है।


एक बहरे को एक गूंगा दे,

ज़िंदगी वो बयान होती है।


ख़ास पहचान किसी चेहरे की,

चोट वाला निशान होती है।


तीर जाता है दूर तक उसका,

कान तक जो कमान होती है।


जो घनानंद हुआ करता है,

उसकी कोई सुजान होती है।


बाप होता है बहुत बेचारा,

जिसकी बेटी जवान होती है।


खुशबू देती है, एक शायर की,

ज़िंदगी धूपदान होती है।

         विराट जी ने गज़लों के साथ ही नवगीत और दोहे भी लिखे। उन्होंने हिन्दी कवि के रूप में हिन्दी साहित्य में अपनी ऐसी विशिष्ट जगह बना ली है कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा।  
स्मृतिशेष  कवि चंद्रसेन विराट


         मैं आज उन्हीं के मुक्तक से उन्हें श्रद्धांजलि दे रही हूं-  
इसी मिट्टी में मिलूं राम करे,
फूल बन-बनके खिलूं राम करे, 
स्वर्ग का दो न मुझे लालच तुम, 
स्वर्ग मिल जाए, न लूं , राम करे। 


बुधवार, नवंबर 14, 2018

चिराग, रोशनी, दीपक, दिवाली ... उजाला कायम रहे - डॉ. वर्षा सिंह


Dr. Varsha Singh

    दीपावली यानी दिवाली का सत्र लगमग पूरे कार्तिक मास में ज़ारी रहता है। शरद पूर्णिमा के बाद दिवाली की तैयारी शुरू है जाती है। अमावस की रात दीपों से जगमगाती है फिर भाई दूज का उजाला, छठ पर्व पर दीपदान, एकादशी को तुलसी पूजन और कार्तिक पूर्णिमा को गुरु पर्व की रोशनी ....। 

ग़ज़लकारों, शायरों ने रोशनी, चिराग़ों, दीपों, उजालों पर बहुत कुछ कहा है। अलग - अलग अंदाज़, अलग- अलग बयानगी। आज इसी बयानगी की हल्की सी बानगी देखिये.....

नज़ीर अकबराबादी की यह ग़ज़ल कौमी एकता की मिसाल है -
नज़ीर अकबराबादी

हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का  

बशीर बद्र ने फरमाया है -
बशीर बद्र

कोई चिराग़ नहीं है मगर उजाला है
ग़ज़ल की शाख़ पे इक फूल खिलने वाला है

ग़ज़ब की धूप है इक बे-लिबास पत्थर पर
पहाड़ पर तेरी बरसात का दुशाला है

अजीब लहजा है दुश्मन की मुस्कराहट का
कभी गिराया है मुझको कभी सँभाला है

निकल के पास की मस्जिद से एक बच्चे ने
फ़साद में जली मूरत पे हार डाला है

तमाम वादी में, सहरा में आग रोशन है
मुझे ख़िज़ाँ के इन्हीं मौसमों ने पाला है।

देवी नांगरानी की यह ग़ज़ल बेहद ख़ूबसूरत है -
कुछ अंधेरो में दीपक जलाओ
आशियानों को अपने सजाओ।
देवी नागरानी


घर जलाकर न यूँ मुफलिसों के
उनकी दुश्वारियाँ तुम बढ़ाओ।

कुछ ख़राबी नहीं है जहाँ में
नेकियों में अगर तुम नहाओ।

प्यार के बीज बो कर दिलों में
ख़ुद को तुम नफ़रतों से बचाओ।

शर्म से है शिकास्तों ने पूछा
जीत का अब तो घूँघट उठाओ।

इलत्ज़ा अशक़ करते हैं देवी
ज़ुल्म की यूँ न हिम्मत बढ़ाओ।
   
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने अपनी ग़ज़ल में भावनाओं को 'श्रद्धा का एक दीप  जलने दो' कह कर इस तरह व्यक्त किया है -
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 मन में विनीत भाव पलने दो
श्रद्धा का एक दीप  जलने दो

पुलकित है नदी अगर प्रेम से
लहरों को जोर तो उछलने दो

धरती और आसमान  एक हैं
शाम ढले क्षितिज पिघलने दो

जिनके  हैं क़दम  डगमगाये
एक बार उनको सम्हलने दो

‘शरद’ रात शीतल है भोर तक
गर्मी  की चर्चाएं  चलने दो
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह



डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की इस ग़ज़ल में रोशनी एक सार्थक उपमान बन कर प्रस्तुत हुई है -
बात क्यों कर जुबान से निकली
एक आंधी बयान से निकली


फ़ब्तियों ने मुहाल कर डाला
जब कभी वह मकान से निकली


रोशनी की तरह सजीली थी
शाम जब-जब अजान से निकली


मिल सकेगा उसे तभी ‘माही’
‘सोहनी’ गर उफान से निकली


उसको ‘बुद्धत्व’ हो गया हासिल
ज़िन्दगी भी जो ध्यान से निकली

कैफ़ भोपाली दिवाली पर यूं बयान करते हैं -
कैफ़ भोपाली
 तन-ए-तन्हा मुक़ाबिल हो रहा हूँ मैं हज़ारों से
हसीनों से रक़ीबों से ग़मों से ग़म-गुसारों से

उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावेदारों से
शफ़क़ से चाँदनी रातों से फूलों से सितारों से

सुने कोई तो अब भी रौशनी आवाज़ देती है
पहाड़ों से गुफाओं से बयाबानों से ग़ारों से

वो दिन भी हाए क्या दिन थे जब अपना भी तअ'ल्लुक़ था
दशहरे से दिवाली से बसंतों से बहारों से

कभी पत्थर के दिल ऐ 'कैफ़' पिघले हैं न पिघलेंगे
मुनाजातों से फ़रियादों से चीख़ों से पुकारों से
  
मुनव्वर राणा फरमाते हैं -
मुनव्वर राणा
अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे
रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

फ़िराक़ गोरखपुरी ने दीवाली के दीपों के ज़रिए क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है -
नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले

धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले

नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले

निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले

कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले

मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले

तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले

जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
फ़िराक़ गोरखपुरी 


भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले

देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले

जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले

जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले

रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले

जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले

कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले

लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले

लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले

ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले

बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले

छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़ सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले


दिगम्बर नासवा ने रोशनी को अपनी ग़ज़ल में कुछ इस तरह बयां किया है -
हमसे हर वक़्त का हिसाब न मांगे दुनिया
ज़िन्दगी की मेरी किताब न मांगे दुनिया

एक ही दिन तो ज़िन्दगी का मिला है मुझको
क्या हुआ रात भर जवाब न मांगे दुनिया
दिगम्बर नासवा


उम्र भर खेलता रहा हूँ फ़कत काँटों से
मुझसे हर पल नया गुलाब न मांगे दुनिया

वक़्त की कशमकश में देख न पाया खुद को
ढल गयी उम्र अब शबाब न मांगे दुनिया

रोशनी के सभी सुराग छुपा कर रक्खो
सुबह से पहले आफताब न मांगे दुनिया

तुम सरे आम राज खोल न देना इनके
स्याह रातों का इक नकाब न मांगे दुनिया

छत पे जाना जो तुम नकाब पहन कर जाना
फिर नया कोई माहताब न मांगे दुनिया

   
नीरज गोस्वामी कहते हैं कि आइये मिल कर चिराग़ां फिर करें । पूरी ग़ज़ल देखें -
दूर होंठों से तराने हो गये
हम भी आखिर को सयाने हो गये

जो निशाने साधते थे कल तलक
आज वो खुद ही निशाने हो गये

लूट कर जीने का आया दौर है
दान के किस्से, पुराने हो गये
नीरज गोस्वामी


भूलने का तो न इक कारण मिला
याद के लाखों बहाने हो गए

आइये मिलकर चरागां फिर करें
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये

साथ बच्‍चों के गुज़ारे पल थे जो
बेशकीमत वो ख़जाने हो गये

देखकर "नीरज" को वो मुस्‍का दिये
बात इतनी थी, फसाने हो गये
   
राजीव भरल राज़ ने अँधेरी रात में झिलमिलाते दीपों को महबूब की याद से जोड़ कर ग़ज़ल कही है -
उसे उसी की ये कड़वी दवा पिलाते हैं,
चल आइने को ज़रा आइना दिखाते हैं.

गुज़र तो जाते हैं बादल ग़मों के भी लेकिन,
हसीन चेहरों पे आज़ार छोड़ जाते हैं.


खुद अपने ज़र्फ़ पे क्यों इस कदर भरोसा है,
कभी ये सोचा की खुद को भी आजमाते हैं?


वो एक शख्स जो हम सब को भूल बैठा है,
मैं सोचता हूँ उसे हम भी भूल जाते हैं.

अगर किसी को कोई वास्ता नहीं मुझसे,
तो मेरी ओर ये पत्थर कहाँ से आते हैं.

तुम्हारी यादों की बगिया में है नमी इतनी,
टहलने निकलें तो पल भर में भीग जाते हैं.

तेरी चुनर के सितारों की याद आती है,
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं.

अब इस कदर भी तो भोले नहीं हो तुम 'राजीव',
तुम्हें भी सारे इशारे समझ तो आते हैं.
    
गिरीश पंकज हर अंधेरे घर के दरवाज़े पर दीपक रखने की बात अपनी ग़ज़ल में करते हैं -
ऊपर वाले ऐसा कर दे
सबका घर खुशियों से भर दे

जो उड़ना चाहे तू उनको
रंग-बिरंगे सुन्दर पर दे

जो घर यहाँ बनाते सबका                               
उनको भी रहने को घर दे
गिरीश पंकज


जहाँ अन्धेरा दिखलाई दे
उस द्वारे पर दीपक धर दे

पाप करे तो पापी काँपे
दुनिया को थोड़ा-सा डर दे

हर दिल में हो प्यार लबालब
नफ़रत के हर गड्ढे भर दे

रोक नहीं तू आने तो दे
हवा बह रही खोल रे परदे

ज़ुल्म देख कर चुप न बैठे
हर इंसां को इतना स्वर दे

पंकज हर मुस्कान के पीछे
मिलते हैं हालात बेदरदे
अज़्म शाकरी का ये शेर यहां याद किया जाना ज़रूरी है -
अज़्म शाकरी 
आज की रात दिवाली है दिए रौशन हैं
आज की रात ये लगता है मैं सो सकता हूँ

दुष्यंत कुमार ने दिए में तेल से भीगी हुई बाती को प्रतीक बना कर बहुत ही गम्भीर हालातों को बड़ी संज़ीदगी से बयां किया है -

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है
दुष्यंत कुमार

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है

निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

दुष्यंत कुमार की चिरागों को ले कर की गई यह बयानगी एक दृष्टांत बन कर मुखरित होती है-
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

शायर एच.एस.बिहारी यादों का दीपक जलाते हैं -
एच.एस.बिहारी
तेरी याद का दीपक जलता है दिन रात मेरे वीराने में
वो पागलपन जो पहले था अब भी है तेरे दीवाने में

दिन रात मेरा ग़म बढ़ता गया पर तेरी मुहब्बत कम न हुई
जो लुत्फ़ तड़पने में पाया वो बात कहाँ मर जाने में

इक आग सुलगती रहती है हर वक़्त मेरा दिल जलता है
है शौक़ मगर कुछ और अभी जलने का तेरे परवाने में
  
वसीम बरेलवी ने चिराग का इस्तेमाल कर के जो शेर कहा है वह निराश मन में नया जोश भर देने वाला है -
उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है

मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
वसीम बरेलवी


कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है

दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
  
  और अंत में मेरी अपनी यानी डॉ. वर्षा सिंह की एक ग़ज़ल दीपावली, रोशनी और उजालों के नाम -
हमने दिल में ये आज ठानी है
एक दुनिया नयी बसानी है


जिनके हाथों में क़ैद है क़िस्मत
हर ख़ुशी उनसे छीन लानी है


दिल के सोये हुए चिरागों में
इक नयी रोशनी जगानी है
डॉ. वर्षा सिंह


जंगजूओं की महफ़िलों में हमें
प्यार की इक ग़ज़ल सुनानी है


लाख जौरे- सितम किये जायें
अम्न की आरती सजानी है


हिन्द की सर ज़मीन जन्नत है
इस पे क़ुरबान हर जवानी है


ईद का जश्न हम मनायेंगे
मिल के दीपावली मनानी है


दहशतों से भरा हुआ है चमन
एकता की कली खिलानी है


तआरुफ़ पूछिए न “वर्षा” का
बादलों- बूंद की कहानी है

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#ग़ज़लवर्षा