सोमवार, फ़रवरी 01, 2021

बसंती हवा | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh


बसंती हवा


     -डॉ. वर्षा सिंह


बिजलियों पर चला, चांदनी में जला 

एक मन सैकड़ों जुगनुओं में ढला 


खूब उतरी ढलानें, चढ़ी चोटियां 

चाहतों का मगर कब रुका काफ़िला 


इक नदी, दो किनारे ख़ुशी-ज़िन्दगी

बीच दोनों के है उम्र का फ़ासला


जब से बहने लगी है बसंती हवा

ख़्वाब थमते नहीं, पत्ता-पत्ता हिला


एक सपना खिला तो उजाला हुआ

देह के पार जाने का ये सिलसिला 


ओढ़नी के कसीदे को है ये पता 

मेरी बिंदिया में वो ही रहा झिलमिला 


धूप जीने का अंदाज़ भी आ गया 

राह में गुलमोहर हंस के जब भी मिला 


छोड़कर नर्मदा, जा के गंगा लगा 

लोग कहते हैं वर्षा का मन बावला


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

12 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-2-21) को "शाखाओं पर लदे सुमन हैं" (चर्चा अंक 3965) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय कामिनी सिन्हा जी,
      बहुत-बहुत आभार आपके प्रति 🙏
      आपने मेरी पोस्ट का चयन चर्चा हेतु किया यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है।
      शुभकामनाओं सहित,
      डॉ. वर्षा सिंह

      हटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-2-21) को "शाखाओं पर लदे सुमन हैं" (चर्चा अंक 3965) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा


    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय कामिनी सिन्हा जी, पुनः बहुत-बहुत आभार !

      हटाएं
  3. ओढ़नी के कसीदे को है ये पता
    मेरी बिंदिया में वो ही रहा झिलमिला

    बहुत सुंदर...
    बहुत मधुर भावाभिव्यक्ति 🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत धन्यवाद प्रिय बहन डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

      हटाएं
  4. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  5. वाह!गज़ब दी 👌
    छोड़कर नर्मदा, जा के गंगा लगा
    लोग कहते हैं वर्षा का मन बावला..वाह!

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