एक सदी है भीतर
- डॉ. वर्षा सिंह
एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर
साथ गया कब कौन किसी के, रिश्तों की माया है
बाहर आंखें पानी-पानी, आग दबी है भीतर
मुट्ठी भर सपनों की ख़ातिर, जाने क्या-क्या झेला
बाहर हर दिन मेला लगता, पीर बसी है भीतर
अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया
बाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर
रोज़ बदलता मौसम "वर्षा", सावन- फागुन लाए
बाहर हरी-भरी फुलवारी, फांस लगी है भीतर
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया
जवाब देंहटाएंबाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर
वाह !! बहुत खूब !!
आपका सृजन सदैव सराहनीय और जीवनानुभव के करीब होता है ।
प्रिय मीना जी आपकी इस आत्मीय टिप्पणी ने मेरे मन को अभिभूत कर दिया।
हटाएंहार्दिक धन्यवाद 🙏
बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें आपको
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद तुषार जी 🙏
हटाएं"अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया
जवाब देंहटाएंबाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर "
बिल्कुल सच कहा आपने।
आदरणीय माथुर जी, मेरी बात से सहमत होने और मेरी ग़ज़ल पर टिप्पणी करने के लिए बहुत धन्यवाद आपको 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 15 फरवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार प्रिय यशोदा जी 🙏
हटाएंबेहतरीन और सार्थक ग़ज़ल प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏
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