शनिवार, फ़रवरी 13, 2021

एक सदी है भीतर | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh

एक सदी है भीतर 


- डॉ. वर्षा सिंह


एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर

बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर 


साथ गया कब कौन किसी के, रिश्तों की माया है 

बाहर आंखें पानी-पानी, आग दबी है भीतर 


मुट्ठी भर सपनों की ख़ातिर, जाने क्या-क्या झेला

बाहर हर दिन मेला लगता, पीर बसी है भीतर 


अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया 

बाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर 


रोज़ बदलता मौसम "वर्षा", सावन- फागुन लाए

बाहर हरी-भरी फुलवारी, फांस लगी है भीतर 


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

10 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया
    बाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर
    वाह !! बहुत खूब !!
    आपका सृजन सदैव सराहनीय और जीवनानुभव के करीब होता है ।

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    1. प्रिय मीना जी आपकी इस आत्मीय टिप्पणी ने मेरे मन को अभिभूत कर दिया।
      हार्दिक धन्यवाद 🙏

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  2. बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें आपको

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  3. "अपनी-अपनी मंज़िल सबकी, अपनी-अपनी दुनिया

    बाहर लंबी-चौड़ी राहें, बंद गली है भीतर "

    बिल्कुल सच कहा आपने।

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    1. आदरणीय माथुर जी, मेरी बात से सहमत होने और मेरी ग़ज़ल पर टिप्पणी करने के लिए बहुत धन्यवाद आपको 🙏

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 15 फरवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏

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