ग़ज़लों में गंगा की उपस्थिति
- डॉ. वर्षा सिंह
देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ।।
अर्थात् हे देवी सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनों लोकों को तारने वाली हैं । शुद्ध तरंगों से युक्त, महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करनेवाली, हे मां ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलों में केन्द्रित है ।
धार्मिक, पौराणिक ग्रंथों में देवी के रूप में अतिपूजनीय गंगा भौगोलिक दृष्टि से यूं तो एक पवित्र नदी है। हिमालय पर्वत पर स्थित गोमुख में गंगोत्री ग्लेशियर से उत्पन्न हो कर बंगाल की खाड़ी में मिलने से पूर्व गंगा 2525 किमी का मार्ग तय करती है। अपनी इस यात्रा के दौरान गंगा देश के अनेक तीर्थ स्थलों से हो कर गुज़रती है।
किन्तु गंगा मात्र नदी नहीं है। वह तो भारतीय संस्कृति और संस्कार है, जो जीवन में भौतिक अध्यात्मिक दैनिक वैचारिक पवित्रता के महत्व को स्थापित करती है। जाति-धर्म के बंधनों से परे कल्पना और यथार्थ के समवेत स्वरों को अपनी गजलों में पिरोने वाले शायरों ने भी गंगा को अपनी ग़ज़लों में विशेष महत्व दिया है।
दुष्यंत कुमार की बहुचर्चित ग़ज़ल के ये शेर जिसमें गंगा की मौज़ूदगी क्रांति का पर्याय है, साहित्यप्रेमियों के साथ-साथ राजनीतिक उद्बोधनों में अनेक बार दोहरायी जाती है -
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
- दुष्यंत कुमार
ऐसे अनेक कवि/ शायर हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में अपनी ग़ज़लों, अपनी शायरी में गंगा का ज़िक्र किया है।आज यहां प्रस्तुत है ग़ज़लों, शेरों में गंगा की उपस्थिति की बानगी -
होश-ओ-ख़िरद क्या जोश-ए-जुनूँ क्या उल्टी गंगा बहती है
क्या फ़रज़ाने कैसे सियाने यारो सब दीवाने हैं
- फ़िराक़ गोरखपुरी
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एक राजा ने उतारी थी ज़मीं पर गंगा
इक नदी दुख में है आँखों से रवाँ हैरत है
- दख़लन भोपाली
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जब भी वो पाकीज़ा दामन आ जाएगा हाथ मिरे
आँखों का ये मैला पानी गंगा-जल हो जाएगा
- ताहिर फ़राज़
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आग के इक क़लम की सियाही लगा
जो धुआँ 'नूर' गंगा किनारे उठा
- कृष्ण बिहारी नूर
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जब जब ख़ुद को क़त्ल करें
ख़ंजर गंगा में धो लें
- अंजुम लुधियानवी
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हुस्न बना जब बहती गंगा
इश्क़ हुआ काग़ज़ की नाव
- इब्न-ए-सफ़ी
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आज पलकों को जाते हैं आँसू
उल्टी गंगा बहाते हैं आँसू
- मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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जो पराई पीर में "नीरज" बहा
अश्क का क़तरा वही गंगा हुआ
- नीरज गोस्वामी
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कभी सहरा कभी समुंदर है
कभी गंगा के आब जैसा इश्क़
- जगदीश प्रकाश
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अब तो गंदा नाला हूँ
पहले मैं गंगा-जल था
- शाहिद अज़ीज़
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धरती पर सुख चैन की ख़ातिर मन के मैल को साफ़ करो
गंगा जल में जिस्म को अपने नहलाने से क्या होगा
- मक़सूद अनवर मक़सूद
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झुक के मुँह अपना जो गंगा में ज़रा देख ले तू
निथरे पानी का मज़ा और भी मीठा हो जाए
- जोश मलीहाबादी
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वो अब पानी को तरसेंगे जो गंगा छोड़ आये हैं,
हरे झंडे के चक्कर में तिरंगा छोड़ आये हैं
- राहत इंदौरी
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मेरा गंगा का देश, मेरा यमुना के देश
मेरी धरती का आँचल हरा है
तन में महके सुमन, मन में चंदन के वन
जहाँ रूप का झरना झरा है
- कुँअर बेचैन
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बहती हुई गंगा तिरे पानी में नहा कर
अपने लिए नेकी न कमा लें कोई हम भी
- अज़लान शाह
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गर निकलती मिरे अरमान की कोई गंगा
फिर तो सहराओं के क्या ख़ूब नज़ारे होते
- शिव ओम "अम्बर"
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ये सोग ख़त्म किया जाए या किया जाए
तुम्हारे हिज्र को गंगा बहा दिया जाए
- सय्यद ज़ामिन अब्बास काज़मी
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गंगा जमुना की लहरों में सात सुरों के सरगम
ताज एलोरा जैसे सुंदर तस्वीरों के एल्बम
- ज़ुबैर रिज़वी
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हर आँख लहू सागर है मियाँ हर दिल पत्थर सन्नाटा है
ये गंगा किस ने पाटी है ये पर्बत किस ने काटा है
- अज़ीज़ क़ैसी
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उसके खारेपन में कोई तो,कशिश होगी ज़रूर
वरना क्यूं सागर से जाके गंगाजल मिलता रहा
- अज्ञात
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स्वर्ग से धरती पर आयी
इंसान की हर खुशियां लायी
घर घर में जाकर मां गंगा
सबको ही पावन कर आयी
- विजय लक्ष्मी पाठक
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खूब बहती है, अमन की गंगा बहने दो
मत फैलाओ देश में दंगा रहने दो
लाल हरे रंग में ना बांटो हमको
मेरे छत पर एक तिरंगा रहने दो…!!
- निशांत
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'सख़ी' रोते ही रोते दम निकल जाए
फ़राग़त हो कहीं गंगा नहाएँ
- सख़ी लख़नवी
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ये आशिक़ अपने अपने अश्क को तूफ़ान कहते हैं
जो सच पूछो तो ये गंगा हमारी ही खुदाई है
- मीर सोज़
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यूँ चढ़ा जूता कस कमर हो चले
जब से गंगा के पार जाते हो
- मिर्ज़ा अज़फ़री
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हमारा ख़ून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे ख़ून में गंगा भी है चनाब भी है
- कँवल ज़ियाई
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बुझ जाएगी मिल-जुल के अगर प्यास बुझाओ
गंगा ही के नज़दीक तो है रूद-ए-जमन भी
- दर्शन सिंह
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रह-ए-हयात न तय हो सकी तो जमुना ने
सुना है डूब के गंगा में ख़ुद-कुशी कर ली
- सीन शीन आलम
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मेरे बच्चो इस ख़ित्ते में प्यार की गंगा बहती थी
देखो इस तस्वीर को देखो ये तस्वीर पुरानी है
- आलम ख़ुर्शीद
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लुत्फ़ तो जब है वो ख़ुद नवाज़े
कहा बहती गंगा में हाथ धोना
- मानी नागपुरी
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कौन सी गंगा नहाया है ये सूरज
जब भी आया है तो क़त्ल-ए-आम ले कर
- सरदार पंछी
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एक जोगन ने बहा कर ज्ञान की गंगा कहा
ज्ञान ही कैलाश है शंकर को पाने के लिए
- पंकज सरहदी
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एक परिंदा चीख़ रहा था मस्जिद के मीनारे पर
दूर कहीं गंगा के किनारे आस का सूरज ढलता था
- नूर बिजनौरी
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गंगा के पानियों सा पवित्र कहें जिसे
आँखों के तट पे तैरता है जो गया बदन
- प्रेम कुमार नज़र
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चलते रह जाते हैं रोज़ ओ शब के धंदे
गंगा उल्टी सीधी बहती रह जाती है
- ख़ावर जीलानी
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चलता रहा मैं रेत पे प्यासा तन-ए-तन्हा
बहती रही कुछ दूर पे इक प्यार की गंगा
- बाक़र मेहदी
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रहेंगे न मल्लाह ये दिन सदा
कोई दिन में गंगा उतर जाएगी
- अल्ताफ़ हुसैन हाली
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डरता हूं रुक न जाये कविता की बहती धारा
मैली है जब से गंगा, मैला है मन हमारा
छाती पे आज उसकी कतवार तैरते हैं
राजा सगर के बेटो तुम सबको जिसने तारा
कब्ज़ा है आज इस पर भैंसों की गन्दगी का
स्नान करने वालों जिस पर है हक़ तुम्हारा
- नज़ीर बनारसी
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एक सच्चा, एक झूठा, दोनों अपने साथ हैं,
आसमाँ के साथ हमको ये जमीं भी चाहिए,
भोर बिटिया, साँझ माता दोनों अपने साथ हैं।
आग की दस्तार बाँधी, फूल की बारिश हुई,
धूप पर्वत, शाम झरना, दोनों अपने साथ हैं।
ये बदन की दुनियादारी और मेरा दरवेश दिल,
झूठ माटी, साँच सोना, दोनों अपने साथ हैं।
वो जवानी चार दिन की चाँदनी थी अब कहाँ,
आज बचपन और बुढ़ापा दोनों अपने साथ हैं।
मेरा और सूरज का रिश्ता बाप बेटे का सफ़र,
चंदा मामा, गंगा मैया, दोनों अपने साथ हैं।
जो मिला वो खो गया, जो खो गया वो मिल गया,
आने वाला, जाने वाला, दोनों अपने साथ हैं।
- बशीर बद्र
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अब तो मज़हब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए
आग बहती है यहां, गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहां जाकर नहाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए
गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।
- गोपालदास 'नीरज'
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ऋषि-मुनियों ने शीश नवाया,
शिव का वो संसार कहाँ ?
कलकल-छलछल, बहती अविरल, गंगा की वो धार कहाँ ?
अर्पण-तर्पण करने वाली, सरल-विरल चंचल-मतवाली,
पौधों में भरती हरियाली, अमल-धवल आधार कहाँ ?
भरा प्रदूषण इसमें भारी, नष्ट हुई पावनता सारी
जिसका करते थे अभिनन्दन, कुदरत का शृंगार कहाँ ?
- रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
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इसकी दुनिया, उसकी दुनिया, जाने किसकी किसकी दुनिया
कोई कहता रब की दुनिया तो कोई इंसानी दुनिया
जुरासिक युग से कलियुग तक जाने कितने रूप धर चुकी
यही पढ़ा है, यही सुना है, है ये बहुत पुरानी दुनिया
हीर-सोहनी, रांझा-माही स्मृतियों में आते-जाते
श्रद्धा मनु या आदम हव्वा, लगती प्रेम कहानी दुनिया
दुख का सागर बड़ा-बड़ा सा, सुख की गंगा एकदम छोटी
दिल टूटे तो पत्थर दुनिया, वरना बहता पानी दुनिया
दुनिया को लेकर जो लड़ते उनको कोई तो समझाए
सूफी संतों का कहना है बिना प्रेम है फ़ानी दुनिया
मिलने और बिछड़ने के भी ढेरों किस्से यहां भरे हैं
"शरद" जानती केवल इतना यह है आनी- जानी दुनिया
- डॉ.(सुश्री) शरद सिंह
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पोंछ दो आंसू किसी के है जो पश्चाताप
व्यर्थ ही गंगाजली से धो रहे हो पाप
सामना कैसे करूँगा सोच कर जाता नहीं
माँ मेरी रोती बहुत है थक चुका है बाप
चाँद की तो दूरियों को नापना आसान है
बात है दिल की अगर गहराइयों को नाप
लोग जो निर्माण करते हैं पसीने से डगर
वक़्त की बंज़र ज़मीं पर छोड़ जाते छाप
- दिगम्बर नासवा
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पोर-पोर में पीर समाया
किसने है ये तीर चुभाया !
मन का हाल नहीं पूछा और
पूछा किसने धीर चुराया !
गूँगी इच्छा का मोल ही क्या
गंगा का बस नीर बताया !
नहीं कभी कोई राँझा उसका
फिर भी सबने हीर बुलाया !
न भूली शब्दों की भाषा 'शब'
किसी बोल ने चीर तड़पाया !
- जेन्नी शबनम
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और अंत में मेरी यानी इस ब्लॉग लेखिका डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लें -
(1)
अपने गांव-शहर का पत्थर भला सभी को लगता है
चाक हृदय हो जाता है जब कभी कहीं वह बिकता है
पकने को दोनों पकते हैं, फ़र्क यही बस होता है
नॉनस्टिक में सुख पकते हैं, हांडी में दुख पकता है
गंगा घाट निवासी भैया, सागर के दुख क्या जानो
जग के दर्द छिपाए मन में, सबसे हंस कर मिलता है
तथाकथित चाहत का मलबा ढोना भी है नादानी
"वर्षा" के सपनों में लेकिन सावन हरदम पलता है
- डॉ. वर्षा सिंह
(2)
बिजलियों पर चला, चांदनी में जला
एक मन सैकड़ों जुगनुओं में ढला
ख़ूब उतरी ढलानें, चढ़ी चोटियां
चाहतों का मगर कब रुका काफ़िला
इक नदी, दो किनारे ख़ुशी- जिंदगी
बीच दोनों के है उम्र का फ़ासला
ओढ़नी के कसीदे को यह है पता
मेरी बिंदिया में वो ही रहा झिलमिला
धूप जीने का अंदाज भी आ गया
राह में गुलमोहर हंस के जब भी मिला
छोड़ कर नर्मदा, जा के गंगा लगा
लोग कहते हैं "वर्षा" का मन बावला
- डॉ. वर्षा सिंह
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मेरी ग़ज़ल को अपनी पोस्ट में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏🌹🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट है गंगा पर...
बहुत श्रमसाध्य...
हार्दिक साधुवाद ...
सादर नमन.... 🙏🌹🙏
हार्दिक धन्यवाद डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 🙏🌹🙏
हटाएंआप सभी की शुभकामनाएं मेरा सम्बल हैं।
लाजवाब संकलन।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आदरणीय जोशी जी 🙏
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज शनिवार 12 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,
बहुत बहुत दिली आभार प्रिय श्वेता सिन्हा जी 🙏🌹🙏
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को "मैंने प्यार किया है" (चर्चा अंक- 3914) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार आदरणीय डॉ. "मयंक" जी
हटाएंअत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि मेरी इस पोस्ट को चर्चा मंच हेतु चयनित किया गया है।
🙏
- डॉ. वर्षा सिंह
सुन्दर संकलन व आकर्षक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सान्याल जी 🙏
हटाएंजैसे गंगा बरस रही हो । अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद अमृता जी 🙏
हटाएंवाह!सराहनीय संकलन आदरणीय दी ।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया प्रिय अनीता जी
हटाएंआपके इस प्रयास की उपादेयता तो गंगा की गहनता सरीखी ही है वर्षा जी ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस अमूल्य टिप्पणी के लिए हृदय की गहराइयों से आपके प्रति आभार ज्ञापित है आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी 🙏
हटाएंबहुत सराहनीय
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आलोक जी 🙏
हटाएंलाजवाब संकलन है ... एक विषय पे संकलन करना आसान नहीं ... बहुत दुष्कर कार्य पूर्ण किया है ...
जवाब देंहटाएंआभार मुझे और मेरी गज़ल को भी शामिल करने के लिए ...
आपकी टिप्पणी का हृदय से स्वागत है। आपकी ग़ज़ल के बिना मेरा कोई भी संकलन पूर्ण होना संभव नहीं है आदरणीय नासवा जी 🙏
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