रविवार, दिसंबर 27, 2020

अजनबी लग रही है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh

- डॉ. वर्षा सिंह


सिसकती हुई-सी हंसी लग रही है 

है मेरी, मुझे अजनबी लग रही है 


शहर अपनी रौ में बहा जा रहा है 

अंधेरों में गुम रोशनी लग रही है 


हदें छू रही हैं किसी की उड़ानें 

किसी से ज़मीं भी कटी लग रही है 


सफ़ेदी पुती हर इबारत के पीछे 

उदासी की स्याही छुपी लग रही है 


बेशक कोई ख़ास ही बात होगी 

तभी बदगुमां ज़िन्दगी लग रही है 


कमी ढूंढने का शग़ल भी अजब है 

उन्हें हादसों में कमी लग रही है 


गुमे हैं वहां बाढ़ में पुल नदी के 

यहां पर तो "वर्षा" थमी लग रही है


(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीम ग़ज़ल।
    जाते हुए साल को प्रणाम।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏🏻

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  2. हदें छू रही हैं किसी की उड़ानें
    किसी से ज़मीं भी कटी लग रही है

    सफ़ेदी पुती हर इबारत के पीछे
    उदासी की स्याही छुपी लग रही है..ख़ूबसूरत अहसास को ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों में सजाया है आपने वर्षा जी.नायाब ग़ज़ल..।

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