बुधवार, जनवरी 20, 2021

चांदनी | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh


चांदनी

  -डॉ. वर्षा सिंह


कोई छू पिघलती हुई चांदनी 

मेरा आंचल सुलगती हुई चांदनी 


चांद आया हज़ारों सितारे लिए 

दे गया इक महकती हुई चांदनी 


उसके हाथों से मौसम गिरा है वहां 

देखिए वो फिसलती हुई चांदनी 


प्यार की एक नीली नदी ज़िन्दगी 

डूबने को मचलती हुई चांदनी 


रजनीगंधा नहीं थाम पाई जिसे

ओढ़नी-सी सरकती हुई चांदनी


लोग ऐसे भी हैं देख पाए नहीं 

फ़ासलों से गुज़रती हुई चांदनी 


मुस्कुराहट बनी तो कभी बेबसी

रूप अपना बदलती हुई चांदनी


एक सपना है तपती हुई धूप का 

बन के "वर्षा" बरसती हुई चांदनी


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

16 टिप्‍पणियां:

  1. चाँदनी की विविधवर्णी सुन्दर गीतिका।

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    1. आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी,
      सादर नमन 🙏
      आपकी टिप्पणी मेरे लेखन का सम्बल है।
      हार्दिक आभार 🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

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    उत्तर
    1. आदरणीय दिलबागसिंह विर्क जी,
      आपने मेरी ग़ज़ल का चयन चर्चा मंच हेतु किया इस हेतु हृदय तल से आपके प्रति आभार 🙏
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  3. ग़ज़ल कहने में आपका कोई जवाब नहीं वर्षा जी । बहुत ख़ूबसूरत, दिल जीत लेने वाली ग़ज़ल कही है आपने ।

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    1. बहुत शुक्रिया आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी 🙏

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  4. कोई जवाब नहीं ।
    बस एक शब्द है ।
    लाजवाब।

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  5. बेहद खूबसूरत प्रस्तुति

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  6. वाह!बहुत ही सुंदर दी।
    सादर

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