रविवार, जनवरी 10, 2021

जो कभी आया नहीं | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh


जो कभी आया नहीं


         -डॉ. वर्षा सिंह


अंकुरित संभावना मुरझा रही है 

शोक से संतप्त होकर गा रही है 


आजकल मेरी ग़ज़ल रूठी हुई है 

जो बनी मरहम सदा सुखदा रही है 


काश, कोई तो उठा लेता जतन से 

धूप आंगन में पड़ी कुम्हला रही है 


जो कभी आया नहीं मेरे शहर में 

आज भी आहट उसी की आ रही है 


चाहतों से जो नदी पूरी भरी थी 

सूखकर वह लुप्त होती जा रही है 


माचिसों तक अब रही सीमित नहीं है 

आग हरियाले वनों पर छा रही है 


बिजलियों ने भी कही वो ही कहानी 

अंत में जिसके सदा "वर्षा रही है



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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

9 टिप्‍पणियां:

  1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय जोशी जी 🙏

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद आपको आदरणीय शांतनु सान्याल जी 🙏

    जवाब देंहटाएं

  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    उत्तर
    1. हार्दिक आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏

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  4. उत्तर
    1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

      हटाएं
  5. लौट आओ दोस्त
    हुई सूनी दिल की महफ़िलें,
    नज़्म है उदास
    थमे ग़ज़लों के सिलसिले,
    अंतस में घोर सन्नाटे हैं।
    सजल नैनों में ज्वार - भाटे हैं
    बिछड़े जो इस तरह गए
    ना जाने किस राह चले?
    कौन देगा शरद को
    स्नेह की थपकियाँ
    किसके गले लग बहन की।
    थम पाएंगी सिसकियां
    किस बस्ती जा किया बसेरा
    हुए क्यों इतने फासले!!

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