शनिवार, जनवरी 23, 2021

उलझनों का दौर है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh

उलझनों का दौर है


           -डॉ. वर्षा सिंह


प्रचार, पक्षपात और अनबनों का दौर है 

फूल-फल रहा है झूठ, उलझनों का दौर है 


स्वांग और सत्य में न भेद कोई शेष है 

टूट कर झरी है चाह, किरचनों का दौर है 


सदी बदल गई मगर नदी तो रेत-रेत है 

क्या कभी बुझेगी प्यास, चिन्तनों का दौर है 


फटे तो बीज की तरह, हुए भी अंकुरित मगर 

हो सके हरे न ख़्वाब, दुश्मनों का दौर है 


सोच और सोच के सिवा न कुछ भी और है

जोर-शोर से है खोज, मन्थनों का दौर है 


मुक्ति भी यकीन है कभी मिलेगी शर्तिया 

आजकल भले है क़ैद, बन्धनों का दौर है 


न ठौर "वर्षा" पा सकी, न ठौर मेघ पा सके

वक़्त रच रहा है खेल, अड़चनों का दौर है


------------


(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)

9 टिप्‍पणियां:

  1. हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी 🙏

    नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के जन्म दिन की
    हार्दिक शुभकामनाओं आपको भी 🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. ग़ज़ल तो लाजवाब है ही, आप अपने नाम को तख़ल्लुस बनाकर अपनी हर ग़ज़ल के मक़ते में यूं इस्तेमाल करती हैं कि वो तख़ल्लुस या आपका नाम न रहकर उस शेर में भरे जज़्बे का ही हिस्सा बन जाता है । ऐसी ख़ूबी मैंने किसी और ग़ज़लगो में नहीं देखी । आपके इस फ़न की तारीफ़ करते-करते ज़ुबां थक सकती है, दिल नहीं ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी,
      यह आपकी सदाशयता है कि आप पूर्ण सहृदयता से प्रशंसा करते हैं। मैं बहुत आभारी हूं आपकी, जितने अच्छी पैनी लेखनी के धनी लेखक हैं आप, उतनी ही पैनी आपकी समालोचना दृष्टि भी है।
      मेरे सभी ब्लॉगस् पर आपका सदैव हार्दिक स्वागत है। मैं आशा करती हूं कि आपका औदार्य इसी तरह मुझे मिलता रहेगा।
      पुनः आभार सहित,
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

      हटाएं
  3. फटे तो बीज की तरह, हुए भी अंकुरित मगर

    हो सके हरे न ख़्वाब, दुश्मनों का दौर है

    बहुत सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं