शुक्रवार, जनवरी 29, 2021

न पूछिए | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है

Dr. Varsha Singh


न पूछिए


      -डॉ. वर्षा सिंह


न उर्वरा धरा रही, न बांसवन रहा यहां 

शहर पसर के फैलता, घुटन भरी हवा यहां 


धुआं - धुआं है दोपहर, उदास रात क्या कहें

न पूछिए कि चांद क्यों लगे बुझा-बुझा यहां 


न ज़िन्दगी का है पता, न आदमी का ठौर है

हुज़ूम के लिबास में, है आदमी खड़ा यहां 


कथाएं सब फ़िजूल हैं, न है परी, न फूल है 

क़बूल हो रही नहीं,  सुकून की दुआ यहां 


न नींद रात-रात भर, न ख़्वाब आंख-आंख भर

हरेक पल जो ढल रहा, लगे जगा- जगा यहां


गर न दौर के बदल का यत्न "वर्षा" कुछ किया 

न भोर होगी सुनहरी, न होगा दिन हरा यहां


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)


8 टिप्‍पणियां:

  1. न ज़िन्दगी का है पता, न आदमी का ठौर है; हुज़ूम के लिबास में, है आदमी खड़ा यहां । बहुत ख़ूब वर्षा जी ! आज के दौर और आज की दुनिया, दोनों ही आपकी इस ग़ज़ल के आईने में नज़र आते हैं ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी 🙏

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को   "कंकड़ देते कष्ट"    (चर्चा अंक- 3963)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    उत्तर
    1. आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी,
      सादर नमन,
      यह मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरी इस ग़ज़ल का चयन आगामी चर्चा के लिए किया है।
      आपके इस औदार्य के लिए हार्दिक आभार 🙏
      आदर सहित,
      डॉ. वर्षा सिंह

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