प्यार का दीपदान
-डॉ. वर्षा सिंह
आंच दिन की न रात को ठहरी
मुट्ठियों में बंधी न दोपहरी
प्यार का दीपदान कर आए
हो गई और भी नदी गहरी
फूल की देह में चुभा मौसम
दर्द से हो गई हवा दुहरी
क़ब्र में भी न चैन रिश्तों को
इस क़दर दौर ये हुआ ज़हरी
वास्ता है तो सिर्फ़ मतलब का
सारे एहसास हो गए शहरी
चींखना भी फ़िज़ूल है "वर्षा"
गांव बहरा, है ये गली बहरी
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
पारम्परिक अल्फाजों के साथ उम्दा अशआर।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल।
बहुत-बहुत आभार आपकी इस उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु आदरणीय शास्त्री जी 🙏
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय जोशी जी 🙏
हटाएंहर शेर कमाल कर रहा है ... लाजवाब गज़ल ...
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय नासवा जी 🙏
हटाएंबहुत सुंदर!!!
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय विश्वमोहन जी 🙏
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-1-21) को "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि"(चर्चा अंक-3951) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
प्रिय कामिनी सिन्हा जी,
हटाएंमुझे प्रसन्नता है कि मेरी पोस्ट को आपने चर्चा हेतु चयनित किया है। इस हेतु हार्दिक आभार 🙏
शुभकामनाओं सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
वाह ! बेहतरीन शेरों से सजी सुंदर ग़ज़ल..
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद प्रिय जिज्ञासा सिंह 🙏
हटाएंसच है गूंगे-बहरे, मतलबियों से पट गया है शहर-गांव
जवाब देंहटाएंबहुत सही
बहुत-बहुत धन्यवाद आपको प्रिय कविता रावत जी 🙏
हटाएंबहुत ख़ूब वर्षा जी !
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी 🙏
हटाएंप्रिय यशोदा अग्रवाल जी,
जवाब देंहटाएंमुझे प्रसन्नता है कि मेरी पोस्ट को आपने "पांच लिंकों का आनंद" हेत चयनित किया है। इस हेतु हार्दिक आभार 🙏
शुभकामनाओं सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत ही सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आदरणीय सान्याल जी 🙏
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